पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/८७

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बहुत जनम बिछुरे थे माउ इहु जनमु तुम्हारे लेखे । कहि रविदास आस लगि जीवउ चिर भाइओ दरसनु देखे ॥ 2 ॥ सरि - सदृश, समान । पतिआरु - आश्वासन, प्रमाण । हउ – (हौं), मैं। - त्तित सिमरनु करउ नै अविलोकनो स्त्रवन बानी सुजसु पूरि राखउ । मनु सु मधुकरु करउ चरन हिरदे धरउ रसन अंमृत राम नाम भाखउ ॥ 1 ॥ मेरी प्रीति गोबिन्द सिउ जिनि घटै। मैं तउ मोलि महंगी लई जीअ सटै ॥ ॥ ॥ रहाउ ।। साध संगति बिना भाउ नहीं ऊपजै भाव बिनु भगति नहीं होड़ तेरी । कहै रविदासु इक बेनती हरि सिउ । पैज राखउ राजा राम मेरी ॥ 2 ॥ अविलोकनो– अवलोकन करना, देखना । स्रवन - कान | पूरि राख - भर लूं। रसन – रसना, जिह्वा । जीअ सटै- प्राणों के मोल । ऊपजै- उत्पन्न होना। ऊपजै- - उत्पन्न होना । पैज- चेक, अनुरोध, इज्जत । 90 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास