पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/८९

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कूपु भरिओ जैसा दादिरा कछु देसु बिदेसु न बूझ जैसे मेरा मनु बिखिआ बिमोहिआ कछु आरपारु न सूझ ॥ 1 ॥ सगल भवन के नाइका इकु छिनु दरस दिखाइ जी ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ मलिन भई मति माधवा तेरो गति लखी न जाई । करहु कृपा प्रभु चूकई मैं सुमति देहु समझाइ ॥ 2 ॥ जोगीसर पावहि नहीं तुअ गुण कथनु अपार । प्रेम भगति कै कारणै कहु रविदास चमार ॥ 3 ॥ कुपू – कुआं । दादिरा - मेंढक । विखिआ - विषयों से। आरा पारू- तट | सगल – सकल । नाइका - स्वामी । लखी— देखी, समझी । नरहरि चंचल है मति मोरी । कैसे भगति करूं मैं तोरी ॥ टेक ॥ तू मोहिं देखे, हौं तोहि देखूं, प्रीति परस्पर होई | तू मोहि देखे, तौहिं न देखूं, यह मति सब बुधि खोई ॥ 1 ॥ सब घट अंतर रमसि निरंतर, मैं देखन नहिं जाना । - सब तोर मोर सब औगुन, कृत उपकार न माना ॥ 2 ॥ मैं तैं तोरि मोरि असमझि सों, कैसे करि निस्तारा । कह रैदास कृस्त्र करुनामय, जै जै जगत अधारा ॥ 3 ॥ नरहरि — नृसिंह रूप में भगवान का नाम । हौं — मैं । तोहि — मुझे । घट- - - - ह्रदय । रमसि–रमण करता है। औगुन-अवगुण, दोष । कृत – किया हुआ। मैं- तैं — मैं, तू अथवा अपने पराए का भाव, अलगाव का भाव । तोरि - मोरि - तेरी मेरी - अथवा अलगाव का भाव । असमझि सों- नादानी से, ना समझी से निस्तारा- - । मोझ । करुनामय - दयालु | - 92 / दलित मुक्ति की विरासत: संत रविदास