पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/९०

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अब मैं हार्यो रे भाई थकित भयों सब हाल चाल ते, लोक न बेद बड़ाई ॥ टेक ॥ थकित भयो गायन अरु नाचन, थाकी सेवा पूजा । काम क्रोध ते देह थकित भई कहौं कहां लौं दूजा ॥ 1 ॥ राम जनहूं न भगत कहाऊं चरन पखारूं न देवा । जोइ जोइ करौं उलटि मोहि बांधैँ, ता ते निकट न भेवा ॥ 2 ॥ पहिले ज्ञान का किया चांदना, पाछे दिया बुझाई । सुन्न सहज मैं दोऊ त्याग, राम न कहूं दुखदाई ॥ 3 ॥ दूर बसे षट्कर्म सकल अरु दूरउ कीन्हे सेऊ । ज्ञान ध्यान दूर दोउ कीन्हे, दूरिउ छाड़े तेऊ ॥ 4 ॥ पांचों थकित भये हैं जहं तहं, जहां तहां थिति पाई । जा कारन मैं दौरो फिरतो, सो अब घट में आई ॥ 5 ॥ पाचों मेरी सखी सहेली, तिन निधि दई दिखाई । अब मन फूलि भयो जग महियां, आप में उलटि समाई ॥ 6 ॥ चलत चलत मेरो निज मन थाक्यो, अब मो से चलो न जाई । साईं सहज मिलौ सोई सनमुख, कह रैदास बड़ाई ॥ 7 ॥ भेवा–भेद, रहस्य । षट्कर्म – छ: प्रकार का कर्म-यज्ञ करना और करवाना, द- शास्त्र का अध्ययन और अध्यापन तथा दान लेना और दान करना । सेऊ- सेवा। पांचों- पांचों ज्ञानेन्द्रियां । घट- ह्रदय में, अन्तरतम में । जगमहियां - वेद- संसार में । आयौं हो आयौं देव तुम सरना । जानि कृपा की जो अपना जना ॥ टेक ॥ त्रिविध जेनि बास, जम को अगम त्रास, संत रविदास वाणी / 93