पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/९२

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नरहिर प्रगटसि ना हो प्रगटसि ना हो । दीना नाथ दयाल नरहरि ॥टेक ॥ जनमेऊं तौही ते बिगरान। अहो कछु बूझे बहुरि सयान ॥ 1 ॥ परिवारि विमुख मोहिं लागि । कछु समुझि परत नहिं जागि ॥ 2 ॥ यह भौ बिदेस कलिकाल । अहो मैं आइ पर्यो जम जाल ॥ 3 ॥ कबहुक तोर भरोस । जो मैं न कहूं तो मोर दोस ॥ 4 ॥ अस कहिये तेऊ ना जान । अहो प्रभु तुम सरबस मैं सयान ॥ 5 ॥ सुत सेवक सदा असोच । ठाकुर पितहिं सब सोच ॥ 6 ॥ रैदास बिनवै कर जोरि । अहो स्वामी तुम मोहिं न खोरि ॥ 7 ॥ सु तु पुरबला अकरम मोर । बलि जाऊं करौ जिन कोर ॥ 8 ॥ प्रगटसि - प्रकट नहीं होते हो । नरहरि - नृसिंह रूप में भगवान का नाम । - तोहिते—तुझ से । बिगरान- प्रलग हो गया हूं। बूझे - पूछता । परिवारि- परिवार, - पारिवारिक जीवन । विमुख लागि - अच्छा नहीं लगता । जागि- जग । भौ भव, संसार । सरबस – सब | खोरि - खोट, दोष । पुरबल - पूर्व जन्म का । अकरम - दुष्कर्म । जिन - मत कौर - कसर, कमी। - संत रविदास वाणी / 95