पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/९३

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बापुरो संत रैदास कहै रे । • ज्ञान बिचार चरन चित लावै, हरि की सरनि रहै रे ॥ टेक ॥ पाती तोड़े, पूजि रचावै, तारन तरन कहै रे । मूरति माहिं बसै परमेसुर, तौ पानी माहिं तिरै रे ॥ 1 ॥ त्रिबिध संसार कौन बिधि तिरबौ, जे दृढ़ नाव न गहै रे । नाव छाड़ि रे डूंगे बसे, तौ दूना दुःख सहै रे ॥2॥ गुरु को सबद अरु सुरित कुदाली, खोदत कोई रहै रे । राम कहहुके न बाढ़ आपो, सोने कूल बहै रे ॥3॥ झूठी माया जग डहकाया, तौ तिन ताप दहै रे | कह रैदास राम जपि रसना, काहु के संग न रहै रे ॥ 4 ॥ बापुरो – दीन । सरनि- शरण | तारन तरन - तारने वाला और तरने वाला। तिरबौ - तरेगा । दृढ़ - मज़बूत । गहै- - ग्रहण करे | डूंगा- छोटी नाव । कहहुके- कहकर । न बाढै—नहीं बढ़ता। आपा- अहंकार । सोनेकूल - शून्य रूपी तालाब, - - अथवा तट | डहकाया - धोखा खाया । तिन ताप - तीन प्रकार के दुःख- आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दरसन दीजै राम दरसन दीजै । दरसन दीजै बिलंब न कीजै ॥ टेक ॥ दरसन तोरा जीवन मोरा । बिन दरसन क्यों जिवै चकोरा ॥ 1 ॥ माधो सतगुरु सब जग चेला । अब के बिछुरे मिलन दुहेला ॥ 2 ॥ धन जोबन की झूठी आसा। सत सत भाषै जन रैदासा ॥ 3 ॥ बिलंब – देर | दुहेला - कठिन । सतसत - सत्य । भाषै- कहता है। - 96 / दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास