पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/९४

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केहि विधि अब सूमिरौं रे, अति दुर्लभ दीनदयाल । मैं गहा बिषई अधिक आतुर, कामना की झाल ॥ टेक ॥ कहा बाहर डिंभ कीये, हरि कनक कसौटी हार । बाहर भीतर साखि तूं, मैं कियौ ससौ अंधियार ॥ 1 ॥ कहा भयो बहु पाखंड कीये, हरि ह्रदय सपने न जान । जो दारा बिभिचारनी, मुख पतिबरत जिय आन ॥ 2 ॥ मैं हृदय हारि बैठ्यों हरी, मो पें सर्यो न एको काज । भाव भगति रैदास दे, प्रतिपाल करि मोहिं आज ॥ 3 ॥ गहा - गहन, गंभीर । विषई - विषयी, भोग विलास में लिप्त । झाल- उत्कट इच्छा। डिंभ - पाखंड | कनक- सोना । कसौटी हार- पारखी। साखी - - - साक्षी। ससौ – शंका। अंधियार - अंधकार, अज्ञान । मैं कियो ससौ अंधियार- मैंने अज्ञान से ही संशय उत्पन्न कर लिया है । दारा - स्त्री । बिभिचारनी - भ्रष्ट चरित्र वाली । मुख पतिबरत - मुख से पतिव्रता होने का दंभ भरने वाली । जिय आन - हृदय में किसी अन्य पुरुष में अनुरक्त । न सर्यो - नहीं हुआ। प्रतिपाल करि– रक्षा करके । - चल मन हरि चटसाल पढ़ाऊं । टेक । गुरू की सांटि ज्ञान का अच्छर । बिसरै तो सहज समाधि लगाऊं ॥ 1 ॥ प्रेम की पाटी सुरति की लेखनी । ररौ ममौ लिखि आंक लखाऊं ॥ 2 ॥ येहि बिधि मुक्त भये सनकादिक । हृदय बिचार प्रकास दिखाऊं ॥ 3 ॥ कागद कंवल मति मसि करि निर्मल । संत रविदास वाणी / 97