पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/९६

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अति संसार अपार भवसागर, जा में जनम मरना संदेह भारी । काम भ्रम क्रोध भ्रम लोभ भ्रम मोह भ्रम, अनत भ्रम छेदि मम करसि यारी ॥ 1 ॥ पंच संगी मिलि पीड़ियो प्रान यों, जाय न सक्यो बैराग भागा । पुत्र बरग कुल बंधु ते भारजा, भरबै दसो दिस सिर काल लागा ॥ 2 ॥ भगति चितऊं तो मोह दुख ब्यापही, मोह चितऊं तो मेरी भगति जाई । उभय संदेह मोहिं रैन दिन ब्यापही, दीनदाता करूं कवन उपाई ॥ 3 ॥ चपल चेतो नहीं बहुत दुख देखियो, काम बस मोहिहो करम फंदा । सक्ति संबंध किया ज्ञान पद हरि लियो, हृदय बिस्वरूप तजि भयो अंधा ॥ 4 ॥ परम प्रकास अबिनासी अघमोचना, निरखि निज रूप बिसराम पाया । बंदत रैदास बैराग पद चिंतना, जपौ जगदीस गोबिंद राया ॥ 5 ॥ - कमलापति- भगवान विष्णु, परमात्मा । अनत - अन्यत्र | छेदि- दूर करके। यारी–मित्रता। पंच संगी - पांच कर्मेन्द्रियां । भारजा- भार्या, पत्नी | कवन – कौन । बिश्वरूप - विश्वरूप, परमात्मा । अघमोचन - पापों का नाश करने वाला। बिसराम - विश्राम, सुख । संत रविदास वाणी / 99