पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/९८

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करै निंद बहु जोनी हांढै ॥ 3 ॥ निंदा कहा करहु संसारा । निंदक का परगटि पाहारा ॥ निंदकु सोधि साधि बीचारिआ । कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ ॥ 4 ॥ ओहु - वह । दुआदस – बारह । सिला - शिला, मूर्ति । कूप- कुआं | तटा- तड़ाग, तालाब। देवावै - दिलवाये । सरपर – निश्चय ही । सीगार - शृंगार - सगली – समस्त । कवनै नहीं गुनै-कुछ भी लाभ नहीं । अनिक – अनेक । बहु - जोनी हांढै – अनेक योनियों में भटकता फिरता है। पाहारा - प्रहार, अर्थात निंदक - द्वारा किया गया प्रहार अवश्य प्रकट हो जाता है, उसका भांडा फूट जाता है। ऊचे मंदर साल रसोई । एक धरि फुनि रहतु न होई ॥ 1 ॥ इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी । जाल गइओ घासु रलिगइओ माटी ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ भाई बंध कुटंब सहेरा। ओइ भी लागे काढु सवेरा ॥ 2 ॥ घर की नारि उरहि तन लागी । उह तउ भूतु भूतु करि भागी ॥3॥ कह रविदास सभै जगु लूटिआ। हम तर एक राम कहि छूटिआ ॥ 4 ॥ साल – शालि, चावल । फुनि पुनः फिर । रलिगइओ - मिल गया । - - " सहेरा - सहेला, मित्र । ओइ — वही । उरहि - ह्रदय से । उह - वह । - - संत रविदास वाणी / 101