पृष्ठ:दासबोध.pdf/११९

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दासबोध। [ दशक २ और सम्मार्जन आदि करने में बहुत प्रीति रखता हो वह सत्वगुणी है ॥२७॥ जो भांति भांति का पूजा का सुन्दर सामान और मण्डप, चान्दनी, आसन आदि देवालय में समर्पण करता हो वह सतोगुणी पुरुप है ॥२८॥ जो देवता के लिए नाना प्रकार के भोजनों की नैवेद्य लगावे और ताजे अपूर्व फल अर्पण करे वह सत्वगुणी है ॥ २६ ॥ जो देवस्थान में भात्ति पूर्वक नीच सेवा भी करता हो-जो स्वयं देवद्वार झाड़ता हो वह सत्व- गुणी है ॥ ३० ॥ पर्व-तिथियों और महोत्सवों में जो उत्साह दिखलाता हो और जिसने तन, मन, वचन आदि सब परमात्मा को अर्पण कर दिया हो वह सत्वगुणी है ॥ ३१ ॥ जो हरिकथा में तत्पर रहकर चन्दन, माला, धूसर, अर्थात् बुक्का या सुगन्धित धूल, लिये हुए सदा खड़ा रहता हो वह सत्वगुणी है ॥ ३२॥ इस प्रकार नर अथवा नारी यथाशक्ति सामग्री लेकर देवस्थान में खड़ी हाँ तो यह सत्वगुण का लक्षण है ॥ ३३ ॥ जो अपना महत्व का काम छोड़ कर देव के निकट शीघ्र ही नावे और अन्तःकरण में भक्ति रखता हो वह सत्वगुणी है ॥ ३४ ॥ बड़प्पन को छोड़ कर और नीच कृत्य अंगी- कार करके जो देवता के द्वार पर खड़ा रहता हो वह सत्वगुणी है ॥३५॥ जो देवता के लिए उपवास करता हो, ताम्बूल आदि न खाता हो; और जो नित्य-नियम, जप, ध्यान आदि करता हो वह सत्वगुणी है ।। ३६ ॥ कठोर वचन किसीसे न बोलता हो, बहुत नियम से चलता हो और जिसने योगियों को संतुष्ट किया हो वह सत्वगुणी है ।। ३७ ॥ अभिमान छोड़ कर भगवान् का *कीर्तन निष्कामता से करता हो; और कीर्तन करते समय भक्ति-प्रेम के कारण जिसके स्वेद और रोमांच उठ आते हो वह सत्वगुणी है ॥ ३८ ॥ हृदय में ईश्वर का ध्यान करने से जिसके नेत्र अश्रु- पूर्ण हो जाते हों और देहभान न रहता हो वह सत्वगुणी है ॥ ३६ ।। जिसे हरिकथा से बहुत प्रीति हो, उससे कभी घबड़ाता न हो और आदि से अन्त तक प्रेम बढ़ता ही जाता हो वह सत्वगुणी है ॥ ४० ॥

  • महाराष्ट्र प्रान्त में, लोगों को सदुपदेश देने के लिए, 'कीर्तन' करने की प्रणाली वहुत

प्राचीन काल से चली आती है । कीर्तनकार धार्मिक और नैतिक पदों का सुस्वर' गान करके उन पर व्याख्यान देते हैं । मृदंग, तम्बूरा, करताल आदि साज भी इन लोगों के साथ रहते हैं । कीर्तनकार को उस प्रान्त में 'हरिदास । कहते हैं। बहुत से हरिदास व्यवसाय की दृष्टि से, और कोई कोई निष्काम होकर, सारे प्रान्त में कीर्तन द्वारा उपदेश करते रहते हैं। कीर्तन प्रायः देवालयों में होता है।