पृष्ठ:दासबोध.pdf/१८७

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पाँचवाँ दशक। पहला समास-गुरु-निश्चय। ( सद्गुरु-सेवा के बिना मोक्ष नहीं । ) ।। श्रीराम ॥ हे परम पुरुप, आत्माराम और पूर्णकाम सद्गुरु! आपकी जय हो जय हो।आपकी महिमा वर्णन नहीं की जा सकती ॥१॥जो वेद के लिए कठिन है, जो शब्द में नहीं आ सकती वही अलभ्य वस्तु' आपके प्रसाद से सत् शिष्य को तत्काल ही मिल जाती है ॥२॥ जो योगियों का मुख्य रहस्य है, जो शंकर का मुख्य विश्राम है; किम्बहुना जो विश्राम का भी मुख्य विश्राम है तथा जो परम गुह्य और अगाध है वही ब्रह्म श्रापके योग से प्राणी स्वयं ही हो जाता है-अर्थात् इस दुस्तर संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है ॥ ३-४ ॥ अब, आप ही के प्रसाद से, गुरु-शिष्यों के लक्षण कहते हैं । सुमुनुत्रों को चाहिये कि इनके अनुसार सद्गुरु के शरण में जावें ॥ ५॥ वास्तव में गुरु, सब के लिए, ब्राह्मण ही है अतएव, अनन्य भाव से, उसीके शरण में जाना चाहिए ॥ ६॥ अहो ! इन ब्राह्मणों के लिए ही स्वयं नारायण ने अवतार लिया और स्वयं विपशु जव श्रीवत्सलांछन (भृगु की मारी हुई लात का चिन्ह ) सादर धारण किये हैं तब दूसरों की क्या कथा है ? ॥ ७ ॥ ब्राह्मण-वचनों से ही ब्राह्मणों के मंत्रों से ही-शूद्रादि भी ब्राह्मण बन जाते हैं; किम्बहुना धातु और पाषाण में भी देवत्व आ जाता है ! ॥ ८॥ जिसका यज्ञोपवीत नहीं हुया वह निस्सन्देह शूद्र ही है; यज्ञोप- वीत-संस्कार से जब दूसरा जन्म होता है तब उसे 'द्विज' कहने लगते ॥ ६॥ वेद आज्ञा देते हैं कि, ब्राह्मण सब के लिए पूज्य है। यह बात सब को मान्य है । वेद-विरुद्ध बातें भगवान् को अप्रिय हैं ॥ १०॥ योग, याग, व्रत, दान, तीर्थ, श्रादि जितने कर्मयोग के अंग हैं, वे कोई, ब्राह्मर के बिना, नहीं हो सकते ॥ ११ ॥ ब्राह्मण साक्षात् वेद-स्वरूप है, ब्राह्मण ही भगवान् है । विप्र-वाक्य से मनोरथ पूर्ण होते हैं॥१२॥ ब्राह्मण के पूजन से वृत्ति शुद्ध होती है, चित्त भगवान् में लगता है और ब्राह्मण के तीर्थ अवर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ।