पृष्ठ:दासबोध.pdf/१९६

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शिष्य-तक्षण। सच्छिप्य का मुख्य लक्षण यह है कि लद्गुरु के वचन में पूर्ण विश्वास रखता हो और अनन्य-भावले उसके शरण में रहता हो ॥१६॥ शिष्य पवित्र. सदाचरणी, विरक्त और मुमुन्न होना चाहिए ॥२०॥ शिष्य को निष्टायन्त, शुचिवन्त और सब प्रकार से नेमी होना चाहिए ॥ २१ ॥ शिष्य विशेष प्रयत्नशील चाहिये; परम दक्ष चाहिय; और अलक्ष की ओर लन रखनेवाला चाहिये ॥ २२ ॥ शिप्य अति धीर, अति उदार और परमार्थ-विषय में अति तत्पर होना चाहिए ॥ २३ ॥ शिप्य परोपकारी, निर्भत्सरी और अर्थ के भीतर प्रवेश करनेवाला चाहिए ॥२४॥ शिप्य परम शृद्ध, परम सावधान और उत्तम गुणों में अगाध होना चाहिये ॥ २५ ॥ शिप्य प्रज्ञावान्, प्रेमी भक, मर्यादावंत तथा नीतिवंत चाहिए ॥ २६ ॥ शिप्य युक्तिवान्, बुद्धिवान् और सदसत्, या नित्यानित्य, का विचार करनेवाला चाहिए ॥ २७ ॥ शिष्य धैर्यवान्, दृढव्रत, कुलवान् और पुण्यवान् चाहिए ॥ २८ ॥ शिष्य सात्विक, भजन करनेवाला, और साधनकर्ता होना चाहिए ॥ २६॥ शिप्य विश्वासी चाहिए; शिष्य शरीर- लेश लहने में सहनशील चाहिए और वह यह जानता हो कि परमार्थ को उन्नति केसे करनी चाहिए ॥ ३०॥ शिष्य को स्वतंत्र, सर्वप्रिय और सब प्रकार से सत्पान होना चाहिए ॥ ३१ ॥ शिप्य सद्विद्यावान्, सद्भाव- वन्त और अन्तःकरण का परम शुद्ध होना चाहिए ॥ ३२ ॥ शिष्य अवि- वेकी न होना चाहिए; शिप्य जन्म से ही सुखी (गर्भसुखी) न होना चाहिए और उसे संसार-दुख से संतप्तदेह होना चाहिए ॥ ३३॥ क्योंकि जो संसार-दुख से दुखित होता है और जो विविधतापों से तप्त होता है, वही एक परमार्थ का अधिकारी होता है* ॥ ३४ ॥ संसार- दुःखौ के कारण ही वैराग्य आ जाता है; अतएव, जो बहुत दुःख भो- गता है उसीके मन में परमार्थ की बात जमती है ॥ ३५॥ जिले संसार से दुख होता है उसीको विश्वास उपजता है और वह विश्वास चल से दृढ़तापूर्वक सद्गुरु का शरण लेता है ॥ ३६ ॥ जिन्होंने अविश्वास से सद्गुरु का सहारा छोड़ दिया-ऐसे बहुत से इस भवसागर में डूब गये । उन्हें सुखदुखरूप जलचरों ने बीच ही में नोच खाया || ३७ ॥ इस लिए

  • जब मनुष्य संसार-दुख से दुखित होता है, और तीनों तापों से तप्त होता है, तव

उसे बहुधा इस बात का ज्ञान हो जाता है कि इस संसार में ऐसी दशा होती है; इससे कोई ऐसा उपाय सोचना चाहिए कि फिर इस कष्टमय संसार में न आना पड़े-इसीका नाम है, परमार्थ का अधिकारी होना। आगे कहते भी हैं -