पृष्ठ:दासबोध.pdf/२०९

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१२८ दासबोध। [ दशक ५ मर्म यह है कि स्वयं तू ही ब्रह्म है-इसमें संदेह अथवा भ्रम नहीं रखना! ॥ ४५ ॥ नवधा भक्ति में आत्मनिवेदन नामक जो मुख्य भक्ति है, उसका भी यही मर्म है ॥ ४६॥ ये पंचमहाभूत क्रमशः कल्पान्त में नाश हो जाते हैं; और प्रकृति-पुरुप (माया और ब्रह्म ) भी ब्रह्म ही हो जाते हैं ॥४७॥ दृश्य पदार्थों के लुप्त होते ही वास्तव में 'मैं' भी नहीं रहता, और परब्रह्म तो श्रादि ही से अद्वैत है ॥४८॥ जहां सृष्टि की वार्ता ही नहीं है, वहां श्रादि ही से एकता, अर्थात् अद्वैत है-वहां पिंड या ब्रह्मांड किसीका पता नहीं है ॥ ४६॥ ज्ञानानि के प्रगट होते ही दृश्यरूपी सारा कूड़ा-कचरा नष्ट हो जाता है, तदाकार हो जाने से भिन्नता का मूल टूट जाता है ॥ ५० ॥ जगत् की अनित्यता का ज्ञान हो जाने पर वृत्ति उसमें नहीं लगती, वह उससे पराङ्मुख होती है, और इस लिए यद्यपि दृश्य (संसार) बना रहता है, तथापि उसका अभाव भास होता है- इस प्रकार स्वाभाविक ही आत्मनिवेदन हो जाता है ॥५१॥ अस्तु । जव .गुरु में तेरी अनन्य भक्ति है तब तुझे ऐसी क्या चिन्ता है ? उससे अलग रह कर-अभक्त बन कर नहीं रहना चाहिए ॥ ५२ ॥ इस बात का दृढ़ी- करण होने के लिए सद्गुरु की सेवा करनी चाहिए; क्योंकि सद्गुरु की सेवा से अवश्य ही समाधान होता है ॥ ५३ ॥ यही श्रात्मज्ञान है। इससे परमशान्ति मिलती है और भव-भय छूट जाता है ॥ ५४ ॥ जो देह ही को 'मैं' समझता है वह आत्मघातकी है। देहाभिमान के कारण वह अवश्य ही जन्म-मरण भोगता रहता है ॥ ५५ ॥ हे शिष्य ! तू चारो देहों से अलग है; तू जन्मकर्म से भिन्न है; और सम्पूर्ण चराचर सृष्टि के भीतर बाहर तू ही भरा है ॥ ५६ ॥ वास्तव में, बद्ध कोई नहीं है-ये सब लोग भ्रान्ति से भूले हुए हैं; क्योंकि इन लोगों ने देहाभिमान को मजबूती से पकड़ लिया है ॥ ५७ ॥ हे शिष्य ! परमार्थ के दृढ़ीकरण के लिए एकान्त में बैठ कर, स्वरूप में (ब्रह्मस्वरूप या अहं- स्वरूप में) विश्रान्ति लेना चाहिए ॥ ५८ ॥ जब अखंड (लगातार) श्रवण और मनन किया जाता है तभी समाधान मिलता है; और ब्रह्म- ज्ञान पूर्ण हो जाने पर वैराग्य प्राप्त होता है ॥ ५६॥ हे शिष्य, स्वच्छन्दता के साथ-मनमानी तरह से यदि तू इन्द्रियों को स्वतंत्र होने देगा तो इससे तेरे जन्म-मृत्यु का दुःख कभी न जायगा ॥६०॥ जैसे मणि का त्याग करते ही राज्यलाभ होता है वैसे ही जिसे विषयों में वैराग्य उप- जता है उसीको पूर्णज्ञान होता है ॥६१॥ सींग के मणि का लोभ करके, मूर्खता से, राज्य की अवहेलना करना अच्छा नहीं ।। ६२ ॥ अविद्या