पृष्ठ:दासबोध.pdf/२१७

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दासबोध। [ दशक ५ . करता है (अर्थात् 'अलख ' को हृदय में लखता है )-इस प्रकार आत्म- स्थिति की धारणा रखता है ॥ १६ ॥ जो 'वस्तु ' लोगों से छिपी है, जिसका मन से अनुमान नहीं किया जा सकता, उसीको वह दृढ़ता से धारण करता है ॥ १७ ॥ जिसका वर्णन करते ही वाचा बंद हो जाती है; जिसको देखते ही आंखें अंधी हो जाती हैं-अर्थात् वाचा और चक्षु की जहां गति नहीं है-उसीको साधक अनेक युक्तियों से प्राप्त करता है॥१८॥ जो साधने से साध्य नहीं होता, जो लखने से लख नहीं पड़ता उसीको वह अनुभव में लाता है ॥ १६ ॥ जहां मन का ही लोप हो जाता है; जहां तर्क ही पंगु हो जाता है-उसीको साधक दृढ़तापूर्वक अनुभव में लाता है॥२०॥वह स्वानुभव के योग से तुरन्त ही वस्तु' को प्राप्त कर लेता है और वही 'वस्तु । स्वयं हो जाता है॥२१॥बह अनुभव के मार्ग जान कर, योगियों के लक्षण प्राप्त करता है और संसार से अलिप्त रह कर कर्म- योगी बनता है ॥२२॥ उपाधि से अलग रह कर, असाध्य 'वस्तु' को वह साधनों से प्राप्त करता है और आत्म-स्वरूप में बुद्धि को दृढ़ करता है ॥ २३ ॥ ईश्वर क्या है और भक्त क्या है, इसका मूल खोज कर देखता है और जो ' साध्य करना है वही स्वयं हो जाता है॥२४॥ साधक पुरुप विवेकबल से गुप्त (अन्तर्मुख)हो जाता है-श्राप ही आप लुप्त (स्वरूप में सदा के लिए लय) हो जाता है; और यद्यपि (उसका स्थूल शरीर) देख पड़ता है, तथापि उसे कोई नहीं देखता ॥२५॥ वह ' मैं-पन' को पीछे छोड़ देता है; स्वयं अपने ' को ढूंढ़ता है और तुर्यावस्था को भी पार कर जाता है॥२६॥इसके बाद उन्मनी अवस्था के अन्त में वह अखंड रीति से स्वयं अपने ' से मिलता है, अर्थात् अखंड आत्मानुभव प्राप्त करता है ॥ २७॥ इस प्रकार साधक द्वैत का सम्बन्ध छोड़ देता है, भास के भासत्व का साक्षी भी नहीं रहता और, देह में रह कर ही, विदेह बन जाता हैं।॥२८॥ वह अखंड स्वरूपस्थिति में रहता है, देह का अहंकार छोड़ देता है और सम्पूर्ण सन्देहों से निवृत्त हो जाता है ॥ २६ ॥ पंचभूतों का यह सब विस्तार साधक को स्वप्नाकार मालूम होता है और निर्गुणस्वरूप का उसे निर्धार हो जाता है ॥ ३० ॥ जैसे स्वप्न में जो भय मालूम होता है वह जागृति में नहीं जान पड़ता, उसी प्रकार वह इस सम्पूर्ण पसारे को मिथ्या समझता है ॥ ३१॥ माया का जो यह रूप लोगों को सच्चा मालूम होता है उसे साधक स्वानुभव से मिथ्या समझता हैं ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार निद्रा छोड़ कर जागृत होने पर मनुष्य श्वन-भय से