पृष्ठ:दासबोध.pdf/२१८

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समास ] साधक-लक्षण। छूट जाता है, उसी प्रकार माया छोड़ कर साधक स्वरूप-स्थिति को प्राप्त करता है ॥ ३३ ॥ इस तरह अन्तःकरण तो उसका स्वरूपस्थिति में रहता है, और बाहर से बह निस्पृहता का अवलम्बन करता है-संसार से विरक्त होकर रहता है ॥ २४ ॥ काम से छूट जाता है, क्रोध से दूर - भगता है और मदमत्सर को एक अोर छोड़ देता है ॥ ३५ ॥ कुलाभिमान का त्याग करता है। लोक-लाज को लजाता है और विरक्ति-बल से पर- मार्थ की धूम मचा देता है ॥ ३६॥ अविद्या से दूर होता है: प्रपंच से हटता है; और अचानक लोस के हाथ से छूट जाता है ! ॥ ३७ ॥ बड़- प्पन को मार गिराता है: वैभव को लथाड़ बताता है; और विरक्तिबल से प्रतिष्ठा को भी सिझकोर डालता है ॥ ३८ ॥ भेद की कमर तोड़ देता है; अहंकार को मार गिराता है और संदेहरूप शत्रु पटक देता है! ॥ ३६॥ विकल्प का वध करता है; भवसिंधु को थप्पड़ों से मार भगाता है; और सब जीवों के विरोध को तोड़ डालता है॥४०॥ भवभय को डरवा देता है; काल की टाँगें तोड़ डालता है; और जन्ममृत्यु का मस्तक चूर चूर कर देता है ! ॥४१॥ देह-सम्बन्धी अहंकार पर अाक्रमण करता है; सकल्प पर धावा करता है और कल्पना को एकाएक मार डालता है ॥ ४२ ॥ भीति का अकस्मात् ताड़न करता है। लिंगदेह को छार छार कर डालता है और पाखंड को विवेकवल से पछाड़ देता है ! ॥ ४३ ॥ गर्व को गर्व दिखलाता है। स्वार्थ को अनर्थ में डाल देता है; और अनर्थ का भी नीतिन्याय से दलन कर डालता है ॥ ४ ॥ मोह को बीच से ही तोड़ डालता है। दुख को दुधड़ कर देता है और शोक को काटकर एक ओर फेंक देता है ! ॥४५॥ द्वेष का देश-निकाला करता है, अभाव (नास्तिकता) का गला घोट डालता है; और उसके डर से ही कुतर्क का पेट फट जाता ॥४६॥ ज्ञान से विचेक और विवेक से वै- राग्य-विषयक निश्चय, प्रबल करके वह अवगुणों का संहार करता है ॥४७॥ अधर्म को स्वधर्म से लूट लेता है; कुकर्म को सत्कर्म-द्वारा हटा. देता है; और विचार से अविचार को हटा कर रास्ता बतलाता है। तिरस्कार को कुचल डालता है; द्वेष को उखाड़ कर फेंक देता है; और अविपाद से विपाद को पैरों तले डाल देता है ॥ ४६॥ कोप पर छापा भारता है; कपट को भीतर ही भीतर कूट डालता है; और संसार के सब मनुष्यों को अपना मित्र बनाता है ॥ ५० ॥ प्रवृत्ति का त्याग करता है; मुहृदों का संग छोड़ देता है; और निवृत्तिपंथ से ज्ञानयोग को प्राप्त करता है ॥ ५१ ॥ विषयरूपी ठग को, उग. लेता है; कुविद्या को घेर लेता १८