पृष्ठ:दासबोध.pdf/२२०

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समास १०] सिद्ध-लक्षण। और निस्पृह (वैरागी) दोनों में अच्छी तरह से होना चाहिए। हां, निस्पृह के लिए बाह्य त्याग विशेष कहा है॥६॥परन्तु सांसारिकों में भी कहीं कहीं कुछ वाह्य त्याग अवश्य होना चाहिए क्योंकि इस-त्याग के बिना नित्य- नेम और सद्ग्रन्थों का श्रवण नहीं हो सकता ॥ ७ ॥ इससे उपर्युत शंका का सहज ही समाधान हो गया-अर्थात् यह सिद्ध हुश्रा कि त्याग के बिना साधक नहीं हो सकता । अस्तु; अब अपने पूर्वनिरूपण पर आइये ॥८॥ पिछले समास में साधक के लक्षण बतलाये गये थे; अव सिद्ध के लक्षण सुनिये:- ॥६॥ सिद्ध स्वयं ब्रह्म बन जाता है; उसका संशय ब्रह्मांड के बाहर चला जाता है और उसका निश्चय अचल हो जाता है ! ॥ १० ॥ बद्धता के अवगुण सुमुन्न्ता में नहीं रहते और सुखचता के लक्षण साधकपन में नहीं रहते ॥ ११ ॥ तया, साधक की सन्देहवृत्ति, आगे चल कर, सिद्धा- वस्था में, निवृत्त हो जाती है। श्रतएव, जिसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है, उसोको सिद्ध जानना चाहिए ॥ १२ ॥ संशयरहित ज्ञान ही सिद्ध साधु का लक्षण है; सिद्ध पुरुप में संशय नहीं हो सकता ॥१३॥ कर्म-मार्ग संशय से भरा है; साधन में संशय मिला है-सब में संशय भरा' है-निस्सन्देह एक साधु ही है ॥१४॥ किसीको यदि अपने ज्ञान, वैराग्य और भजन में संशय है तो उसके लिए ये सब निष्फल हैं ॥१५॥ किसी- को यदि ईश्वर में, अथवा अपनी भाके में, शंका है किंवा यदि किसीका' स्वभाव सन्देहयुक्त है, तो उसके ये सभी व्यर्थ है ॥ १६ ॥ किसीको यदि अपने तीर्थ और परमार्थ में संशय है-निश्चय नहीं है तो उसके ये सब व्यर्थ हैं ॥ १७ ॥ संशयात्मक भक्ति, प्रीति और संगति व्यर्थ हैं और इनसे सन्देह ही बढ़ता है ॥ १८॥ संशय का जीना और करना-धरना सब कुछ व्यर्थ है ॥ १६ ॥ पोथी, शास्त्रज्ञान, और कोई.काम, यदि संशय- सहित है-निश्चयरहित है-तो व्यर्थ है ॥ २० ॥ संशययुक्त दक्षता और संशययुत्ता पक्षपात व्यर्थ है । संशययुक्त ज्ञान से मोक्ष कभी नहीं मिल सकता ॥ २१ ॥ संत, पण्डित और बहुश्रुत यदि संशयसहित- निश्चयरहित हैं तो व्यर्थ हैं ॥ २२ ॥ संशयी श्रेष्ठता और संशयी व्युत्प- नता व्यर्थ है तथा संशयी ज्ञाता, जिसमें निश्चय नहीं है, व्यर्थ है ॥ २३ ॥ निश्चय के बिना कोई भी अणुमात्र प्रामाणिक नहीं हैं-ये सब.व्यर्थ ही सन्देह के प्रवाह में पड़े हैं ! ॥ २४ ॥ निश्चय के बिना जो कुछ कहा जाय, सब त्याज्य है । वाचालता में भरकर, बहुत सा बोलना निरर्थक है ॥ २५ ॥ अस्तु । निश्चय के बिना जो वल्गना है वह सब केवल विटम्वना- व्रत,