पृष्ठ:दासबोध.pdf/२६४

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समास ४] केवल ब्रह्म। सारे शरीर में व्याप्त है; पर मिलता नहीं और पास होकर भी दूर हो रहा है ! ॥३३॥ सामने ही है, चारो ओर है। उसी दिन-रात देखा करते हैं-भीतर बाहर, सब जगह, वह प्रत्यक्ष है, इसमें कोई शक नहीं ! ॥३४॥ उसमें हम हैं, और हममे, भीतर बाहर, वह है। वह, आकाश की तरह, 'दृश्य से अलग है ॥ ३५ ॥ जहां कुछ भी नहीं जान पड़ता वहां भी वह भरा पड़ा है ! जैसे अपना धन अपने ही को न दिखता हो उसी प्रकार परब्रह्म अदृश्य हो रहा है। ॥ ३६ ॥ जो जो पदार्थ देख पड़ते हैं उन उन पदार्थों के इसी तरफ वह है ! (अर्थात् पहले उस पर दृष्टि पड़ना चाहिये तब पदार्थ पर!) अनुभव-द्वारा इस कूटक को हल करना चाहिए! ॥३७॥ जैसे सम्पूर्ण दृश्य पदार्थ (पृथ्वी, आदि) को छोड़ कर', शेष सव, आगे-पीछे, चारो ओर, आकाश ही है वैसे ही वह परब्रह्म चारो ओर समरस भरा है ॥३८॥ जहां तक रूप और नाम है वह सब झूठ हो भ्रम है, और नामरूप से जो परे है, उसका मर्म अनुभवी पुरुप जानते हैं॥३६॥ जैसे आकाश में धुएँ के बड़े बड़े पर्वत उठते हों, वैसे ही माया देवी अपना आडम्बर दिखाती है ॥४०॥ यह माया अशाश्वत है; ब्रह्म शाश्वत है और वह सब जगह सदा-सर्वदा भरा हुआ है ॥ ४१ ॥ देखिये, पुस्तक पढ़ते समय, वह अक्षरों मै भी भरा है और बड़ी कोमलता से नेत्रों में भी प्रविष्ट है! ॥ ४२ ॥ कानों से शब्द सुनते समय, मन से विचार करते समय, वास्तव में वह परब्रह्म मन के भीतरचाहर बना रहता है। ॥४॥ मार्ग में चलते समय, पैर पहले उसीको छूते हैं ! वह सर्वांग में छू रहा है और हाथ में, जब हम कोई वस्तु लेते हैं तव, उस वस्तु के पहेले, पर- ब्रह्म ही हमारे हाथ में आता है ! ॥४४॥ कहां तक कहें, सारी इन्द्रियां और मन सदा सर्वदा उसी में वर्तते हैं, परन्तु उसे जानने में हताश हैं ! ॥ ४५ ॥ वह पास ही है; पर देखने से देख नहीं पड़ता । देख वह अवश्य नहीं पड़ता; पर वह है अवश्य ! ॥४६॥ अस्तु । दृश्य का निरसन करने पर, अपने अनुभव से ही, वह प्राप्त होता है-वह अनुभवगम्य है ! ॥ ४७ । ज्ञानदृष्टि से देखने की वस्तु चर्मदृष्टि से नहीं दिख सकती । भीतरी अनुभव की बात भीतर की वृत्ति ही जान सकती है ! ॥ ४ ॥ ब्रह्म, माया, और अनुभव की बात, जानने- वाली सर्वसाक्षिणी एक तुर्या-अवस्था है ॥ ४६ ॥ उसका साक्षित्व, वृत्ति का कारण है-(अर्थात् तुर्या में वृत्ति है)-उसके वाद उन्मनी अवस्था अर्थात् निवृत्ति की दशा है, वहां (उन्मनी में) जानपन (ज्ञातृत्व) मिट जाता है, वही विज्ञान है ! ॥ ५० ॥ वहां (उन्मनी अवस्था में ) अज्ञान मिट .