पृष्ठ:दासबोध.pdf/२६५

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१८४ दासबोध । [ दशक ७ जाता है, ज्ञान भी नहीं रहता, और विज्ञान-वृत्ति परब्रह्म में लीन हो जाती है। वही 'केवलब्रह्म ' है ! वहां कल्पना का अंत हो जाता है ! वहीं योगी जनों का एकान्त-विश्राम है ! उसको अनुभव से जानना चाहिये ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ पांचवाँ समास-दैत-कल्पना का निरसन । ॥ श्रीराम ॥ उपर्युक्त शाश्वत और शुद्ध ब्रह्म अनुभव में आगया-और माया का भी पता लग गया !॥१॥ अर्थात्, ब्रह्म का अन्तःकरण में अनुभव होता है, और साया भी प्रत्यक्ष देख पड़ती है-अब इस त का किस प्रकार निर- सन हो ? ॥२॥ तो फिर, अव, मन को सावा..न और एकान करके, सुनिये, कि माया और ब्रह्म को जानता कौन है:-॥३॥ द्वैत की यह कल्पना, कि ब्रह्म का संकल्प सत्य है और माया का विकल्प मिथ्या है, मन ही करता है!॥४॥ एक तुर्या अवस्था ही माया और ब्रह्म को जानत है-वह सब जानती है, इसी लिए उसे 'सर्वसाक्षिणी' कहते हैं ॥५॥ पुर्या 'लव' जानती है; परन्तु जहां 'सब' है ही नहीं, वहां जानेगा कौन, और किसको ? ॥ ६ ॥ संकल्प-विकल्प की सृष्टि तो मन ही के पेट से हुई है-सो, अंत में वह मन ही मिथ्या ठहरता है, तब साक्षी कौन है? ॥७॥ साक्षीपन, चैतन्यता और सत्ता, ये गुण, माया के कारण, व्यर्थ ही के लिए, ब्रह्म के मत्थे मढ़े गये हैं ! ॥ ८॥ घटाकाश, मठाकाश और महदाकाश, ये तील भेद होने के लिए, जिस प्रकार घट और मठ कारण हैं, उसी प्रकार, माया के योग से, ब्रह्म में गुणों का आरोप हो रहा है ! परन्तु वास्तव में आकाश एक ही है और ब्रह्म भी निर्गुण तथा

  • शिष्य कहता है कि, माया क्या है और ब्रह्म क्या है-सो तो मालूम होगया; परन

माया और ब्रह्म के द्वैत का निरसन कैसे होगा ? उत्तरः-माया और ब्रह्म की कल्पन होती किसको है ? मन को । वह कल्पना मिटने पर, मनोवृत्ति के न रहने पर, अथा यो कहिये, कि उन्मन होने पर, फिर द्वैत कैसे रहेगा ? परन्तु यह कल्पना मिटावे कैसे ? कल्पना से कल्पना मिटती है । ब्रह्म की कल्पना शुद्ध कल्पना है; संकल्प है। माया की कल्पना शवल ( औपाधिक ) या अशुद्ध कल्पना है; विकल्प है। अब इस संकल्प से, पहले विकल्प का नाशं करो; इसके वाद, फिर, संकल्प स्वयं ब्रह्म में लीन हो जायगा और, केवल ब्रह्म' की प्राप्ति होगी।