पृष्ठ:दासबोध.pdf/२६६

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समास ५] द्वैत-कल्पना का निरसन । शाश्वत है ॥ ६ ॥ जव तक माया सलमानी जाती है तभी तक ब्रह्म में साक्षित्व है । अविद्या का निरास हो जाने पर द्वैत कहां रह सकता हैं? ॥१०॥ एवं च, सर्वसाक्षी सन जब उम्मन हो जाता है तब तुर्यारूप ज्ञान अस्त हो जाता है ॥१२॥ जिसे द्वैत का भास होता है वह मन ही जब उन्मन होगया, तब द्वैत-अद्वैत का अनुसंधान कहां रहा? ॥१२॥अर्थात् द्वैताद्वैत की कल्पना वृत्ति का चिन्ह है। वृत्ति निवृत्त हो जाने पर द्वैत का पता भी नहीं चलता ॥ १३ ॥ वही वृत्तिरहितं ज्ञान (विज्ञान) पूर्ण शान्ति है-वहां माया और ब्रह्म का झगड़ा मिट जाता है ॥ १४ ॥ यह माया और ब्रह्म का झगड़ा सन ने ही कल्पित किया है-वह ब्रह्म वास्तव में कल्पनातीत है उसे ज्ञानी ही जानते हैं ॥ १५ ॥ जो मन और बुद्धि से अगोचर है, ने कल्पना से भी परे है, उसका यथार्थ अनुभव करने से द्वैत कहां रह सकता है ? ॥ १६ ॥ द्वैत की ओर देखने से ब्रह्म नहीं मालूम होता; ब्रह्म की ओर देखने से बैत का नाश हो जाता है- क्योंकि द्वैत और अद्वैत का भास कल्पना से ही है ॥ १७ ॥ कल्पना आया का निवारण करती है, ब्रह्म को स्थापित करती है, तथा संशय उठाने या संशय को रोकनेवाली भी कल्पना ही है ॥ १८॥ वह बंधन में डालती है; समाधान देती है और ब्रह्म की ओर ध्यान लगाती है ॥१६॥ कल्पना द्वैत की जननी है; वास्तव में वही ज्ञप्ति या ज्ञान का रूप है और बद्धता या मुक्तता भी उसीले आती है ॥ २० ॥ शबल (औपाधिक) कल्पना मिथ्या ब्रह्माण्ड देखती है और शुद्ध कल्पना उसी क्षण निर्मल स्वरूप की भावना करती है ॥ २१ ॥ कल्पना क्षणभर में चिंता करती है, क्षणभर में ही स्थिर हो जाती है और क्षण ही में विस्मित होकर देखती है ॥ २२॥ वह एक क्षणभर में समझती है, क्षणभर में ही घबड़ाती है और इसी प्रकार अनेक विकार लाती है! ॥ २३ ॥ कल्पना जन्म का मूल है; भक्ति का फल वही मोक्ष देनेवाली है.॥ २४ ॥ अस्तु । साधन करते समय यदि इसी कल्पना का अच्छा उपयोग किया गया तो इसीसे आन्ति मिलती है; अन्यथा यह पतन का भूल ही है ॥ २५ ॥ एवं, सब की जड़ केवल यह कल्पना ही है-इसको निर्मूल करने पर ब्रह्मप्राप्ति होती है ॥ २६ ॥ श्रवण, मनन और निदिध्यास से समाधान मिलता है और मिथ्या कल्पना का भान उड़ जाता है ।। २७ ॥ शुद्ध ब्रह्म का निश्चय कल्पना को ऐसे जीत लेता है जैसे निश्चित अर्थ से संशय नाश हो जाता है ॥ २८॥ मिथ्या कल्पना का ढोंग सत्य के सामने कैसे टिक सकता है ? सूर्य के उजेले के सामने कहीं अँधेरा रह सकता है ? ॥२६॥ २४