पृष्ठ:दासबोध.pdf/२७१

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दासबोध । [ दशक ७ (अर्थात् वे जीवितावस्था ही में ज्ञान द्वारा मुक्त होगये हैं और व्यवहार कर रहे हैं)-और जो अचेतन है वे विदेहमुक्त कहलाते हैं-(अर्थात् जीवितावस्था ही में मुक्त होगये हैं। पर अजगर की तरह, देहभान भूले हुए, पड़े हैं)-इन दोनों के अतिरिक्त योगीश्वरों को, नित्यमुक्त जानना , चाहिए ॥ ४६ ॥ स्वरूप का वोध होने से जो स्तब्धता (उदासीनता या स्थिरता) पाती है उसे तटस्थ अवस्था जानना चाहिए। इस तटस्थता और स्तब्धता में देह का सम्बन्ध बना रहता है* ॥४७॥अस्तु । सुक्ति का कारण स्वानुभव' है, और शेप सब व्यर्थ है । अपने अनुभव से ही तृप्त होना चाहिए (अर्थात् स्वानुभव-तृप्त पुरुप ही सच्चा मुक्ता है; फिर उसकी हलचल देख कर भले ही उसे कोई वद्ध कहा करे!) ॥ ४ ॥ जो पुरुष कंठ-पर्यन्त, तृप्त होकर, भोजन कर चुका है, उसे यदि कोई भूखा कहे तो कहा करे ! इससे क्या वह सचमुच ही 'क्षुधा-व्याकुल हो सकता है ? ॥ ४६॥ निराकार स्वरूप में जब देह ही नहीं है तब वहां सन्देह कहां से आवेगा? 'बद्ध' और 'मुक्त' की भावना तो सिर्फ देह ही तक है ॥ ५० ॥ और, देहाभिमान रख कर तो ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तक मुक्त नहीं हो सकते; फिर शुकदेव के मुक्तपन की क्या गणना ? ॥ ५१ ॥ क्योंकि 'मुक्तपन ' की भावना ही बद्धपन का लक्षण है; अतएव सुक्त और 'बद्ध' दोनों व्यर्थ है-सत्-स्वरूप में न 'बद्ध' की भावना है, न 'मुक्त ' की भावना है-वह स्वतःसिद्ध है ॥५२॥ जिस प्रकार पेट में शिला बांध कर पानी में तैर नहीं सकते उसी प्रकार, मुक्तापन का अभिमान रखते हुए, परमात्मा में मिल कर नहीं रह सकते ॥ ५३ ॥ जो 'मैं'-पन से छूट जाता है वही मुक्त होता है। फिर चाहे वह सूक हो, चाहे वोलता हो-वह मुक्त ही है ! ॥ ५ ॥ जो (सन्त-स्वरूप) बांधा ही नहीं जा सकता उसके तई मुक्तपन कहां से आया-(अर्थात् जहां बद्धपन है वहीं सुक्तपन की भी भावना है। यहां तो सारी गुण-वार्ता व्यर्थ है ॥ ५५॥ बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः । गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न वंधनम् ॥ १ ॥

  • स्वरूपबोध होने पर निश्चेष्ट पड़ा रहना, शिष्य के मत से, मुक्ति का लक्षण है और

हिलना-डुलना बद्ध का लक्षण है-इस पर सद्गुरु कहते हैं कि, हिलना-डुलना, अथवा स्तब्ध • या तटस्थ रहना, देह के कारण से है-और देहबुद्धि रखने से कोई मुक्त नहीं हो सकता। जो कोई कहेगा कि “ मैं मुक्त हूं" वही वास्तव में बद्ध है।