पृष्ठ:दासबोध.pdf/२७६

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समास ] साधन का निश्चय। > स्वयं ब्रह्म ही होगया; अब साधन कौन करेगा" ॥ ५४ ॥ ब्रह्म के विपय में कल्पना नहीं चलती और वही, वहां, खड़ी रहती है-उसे जो खोज कर देखता है वही साधु है ॥ ५५ ॥ निर्विकल्प की कल्पना करना चाहिए; परन्तु स्वयं कल्पक न बनना चाहिए-(अर्थात् अपने को यह 'कल्पना न रहनी चाहिए कि जिसकी कल्पना करते हैं उससे अलग इम कोई वस्तु हैं।) इस प्रकार मैंपन ' का त्याग करना चाहिए ॥ ५६ ॥ ये ब्रह्मविद्या के लटके हैं ! कुछ न होकर भी रहना चाहिए, जो दक्ष और समाधानी है वहीं यह बात जानता है ! ॥ ५७ ॥ जब यह समझ आ जाती है कि, जिसकी कल्पना करते हैं, 'हम' स्वयं वही' हैं, तव कल्पना के नाम से शून्य रह जाता है।५८॥ अपने पद सेचलित न होकर साधन और उपाय करना चाहिए, तभी अलिप्तता का मार्ग मिलता है ।। ५६ ॥ जिस प्रकार राजा, राजगद्दी पर ही, बैठा रहता है और सब सत्ता (हुकूमत) श्राप ही आप चला करती है। इसी प्रकार, वास्तव में, साध्य ही वन कर साधन करना चाहिए ॥ ६०॥ साधन देह के मत्थे आ जाता है-और स्वयं 'हम' देह सर्वथा नहीं है-इस प्रकार, करके भी, सहज ही में अकर्ता हो सकते हैं ॥ ६१ ॥ साधन तभी छोड़ा जा सकता है लब यह कल्पना की जाय कि " हम देह हैं"-(देहाभिमान के विना साधन का त्याग नहीं किया जा सकता)-साधन के त्याग से देहाभि- मान का दोष लगता है । जब 'हम' स्वभाव ही से देहातीत है तब फिर देह कहां से आयी? ॥ ६२॥ न उसे देह कह सकते हैं और न उसे साधन कह सकते है-'हम' स्वयं निस्सन्देह हैं-देह के रहते हुए भी यही विदेहस्थिति है ! ॥ ६३ ॥ साधन के बिना ब्रह्म' बनने से देह-ममता नहीं छूटती और ब्रह्मज्ञान के मिस से बालस बढ़ता है ॥ ६४॥ परमार्थ के मिस से स्वार्थ जगता है; ध्यान के बहाने निद्रा पाती है; और मुक्ति के मिस से अनर्गलता (स्वच्छन्दता) का पाप होता है ॥६५॥ निरूपण के मिस से निन्दा होती है; संवाद के मिस से विवाद बढ़ता है; और उपाधि के बहाने शरीर में अभिमान आ जाता है ॥ ६६ ॥ तथा ब्रह्मज्ञान के मिस से आलस आता है और मनुष्य कहता है कि साधन का पागलपन क्या करना है ? ॥६७॥ किं करोमि क गच्छामि किं गृहामि त्यजामि किम् । आत्मना पूरितं सर्व महाकल्पांबुना यथा ॥ १ ॥