पृष्ठ:दासबोध.pdf/२८३

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२०२ दासबोध। [ दशक ७ ऊपरी बातों को पसंद करता है, निन्दक पुरुप बुरा अवसर ताकता है और पापी आदमी पापबुद्धि को पकड़ता है ॥ ५२ ॥ किसीको रसाल, किसीको गाथा (व्यर्थ विस्तार) और किसीको केवल भोली- भाली भति ही चाहिए ॥ ५३॥ आगमी (तंत्रशास्त्री) अागम को, शूर संग्राम को और धार्मिक नाना धर्मों को देखता है ॥ ५४ ॥ सुक्क पुरुप मोक्ष के प्रानन्द का अनुभव करता है, सर्वज्ञ मनुष्य सब कला देखता है और ज्योतिषी, पिंगला (पक्षीविशेष ) को देख कर, भविष्य वर्णन करना चाहता है ॥५५॥ इस प्रकार कहां तक गिनावे-लोग, अपने अपने मन के अनुसार, सदा अनेक ग्रन्थ पढ़ा और सुना करते हैं ॥ ५६ ॥ परन्तु जिससे परलोक न सधे उसे श्रवण नहीं कहना चाहिए-अर्थात् जिसमें आत्मज्ञान नहीं है उसे 'दिलबहलाव' कहना चाहिए ! ॥ ५७ ॥ मिठाई के बिना मिठास, नाक के विना सौन्दर्य और ज्ञान के विना निरू- पण हो ही नहीं सकता ॥ ५८ ।। अब बस करो, इतना बहुत हुआ । परमार्थ-ग्रंथ सुनना चाहिए। परमार्थ-ग्रंथ बिना और सब व्यर्थ गाथा है। ॥ ५६ ॥ इस लिए, जिसमें नित्य-अनित्य का विचार या सार-प्रसार कर विवेक कहा गया है उसी अन्य के श्रवण से मुक्ति मिलती है ॥ ६० ॥ दसवाँ समास-जीवन्मुक्त का देहान्त । ॥ श्रीराम ॥ माया की ऐसी कुछ लीला है कि मिथ्या सत्य हो जाता है और सत्य मिथ्या जान पड़ता है! ॥१॥ यद्यपि सत्य का निश्चय होने के लिए अनेक ग्रन्थों का निरूपण किया गया है; तथापि असत्य की प्रबलता नहीं जाती!॥२॥ असत्य, मनुष्य के हृदय 'छा गया है, और यद्यषि किसीने उसका उपदेश नहीं किया; तथापि वह दृढ़ भी होगया है; परन्तु जो 'सत्य' है उसका मनुष्य को पता ही नहीं है । ॥३॥ वेद-शास्त्र- पुराण सत्य का निश्चय बतलाते हैं; पर तो भी सत्य का स्वरूप मन में नहीं आता! ॥ ४॥ देखिये तो, प्रत्यक्ष, शाखों के सामने, देखते ही देखते, यह हाल हो रहा है, कि 'सत्य' शाश्वत होकर भी अच्छादित हो रहा है और 'मिथ्या' नश्वर होने पर भी सत्य हो रहा है ! ॥ ५॥ परन्तु, यह माया की लीला, सन्तसमागम करके अध्यात्म-निरूपण का विचार करने पर, तत्क्षण मालूम हो जाती है॥६॥अस्तु । पीछे यह बतलाया गया कि:- मैं का पत्ता लगाने से परमार्थ की पहचान मालूम होती है ॥७॥