पृष्ठ:दासबोध.pdf/२८९

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रं दासबोध । [ दशक.८ पत्थर तो उसकी कृति ( सृष्टि ) का. एक क्षुद्र अंग है ॥ ३१ ॥ मान ली- जिए कि किसीने मिट्टी की सेना बनाई; परन्तु उसका बनानेवाला (निमित्त- कारण, या कर्ता) उस सेना से अलग ही है क्योंकि कार्य-कारण दोनों एक नहीं हो सकते ॥ ३२ ॥ हां, यदि कार्य और कारण, दोनों पंच- भूतात्मक है तो, पंचभूतात्मक दृष्टि से, वे एक हो सकते हैं, परन्तु जहां निर्गुण की बात है वहां ऐसा कदापि नहीं हो सकता; क्योंकि कार्य-कारण की एकता का सम्बन्ध पंचभूतों ही तक है॥३३॥अंतएव इसमें कोई सन्देह नहीं कि, इस सम्पूर्ण सृष्टि का कर्ता, इस सृष्टि से, अलग है ॥ ३४॥ कठपुतलियों को नचानेवाला स्वयं कठपुतली कैसे हो सकता है ? ॥३५॥ छायामण्डप" (बायस्कोप,) की सेना, विलकुल सच्ची ही सेना की तरह, युद्ध करती है और एक मनुष्य वह सब तमाशा करता है; परन्तु क्या वह मनुष्य, उस सेना की कोई भी व्यचित, हो सकता है ? ॥३६॥ इसी 'प्रकार उस परमात्मा ने यह सृष्टि तो रची है; पर वह स्वयं सृष्टि का अंग नहीं है । जिसने अनेक जीवों को रचा है वह स्वयं जीव कैसे हो सकता है?॥३७॥यह कैसे हो सकता है, कि जो जिस पदार्थ को बनाता है, वही पदार्थ वह स्वयं भी है? परन्तु विचारे विवेकहीन पुरुप व्यर्थ ही सन्देह में पड़े रहते हैं ! ॥३८॥मान लो, सृष्टि की तरह, किसीने कोई सुन्दर मन्दिर बनाया; परन्तु क्या वह मन्दिर बनानेवाला, स्वयं मन्दिर थोड़े ही हो सकता है ? ॥ ३६॥ उसी प्रकार जिसने जगत् रचा है, वह जगत् से बिलकुल अलग है। परन्तु कोई कोई मूर्खता से कहते हैं कि जगत् ही जगदीश है ! ॥४॥ एवं, वह जगदीश अलग है और जगत् की रचना उसकी कला है। वह सब में है-परन्तु, सब से अलग रह कर, सव में है.!॥ ४१ ॥ अस्तु ! पंचभूतों के कर्दम से वह आत्माराम.अलग है। अविद्या के कारण, माया का भ्रम सत्य ही जान पड़ता है ॥ ४२ ॥ यह विपरीत वि- चार कहीं भी नहीं है कि, माया की उपाधि और जगत् का आडंबर सभी सत्य है ॥ ४३ ॥ इस लिए सब से परे जो परमात्मा है, वही सब के भीतर-बाहर व्याप्त है, और वही अन्तरात्मा सत्य है । यह जगत् मिथ्या है॥४४॥ उसीको 'देवता' कह सकते हैं, और सब झूठ है। यही वेदान्त का सर्म है ॥४५॥ अब, यह तो प्रत्यक्ष अनुभव की बात है कि, ये यावत् दृश्य पदार्थ ताशवन्त हैं और भगवान् अविनाशी है; इस लिए भगवान् , इन दृश्य पदार्थों से, परे है॥४६॥सम्पूर्ण शास्त्र जिस परमात्मा को निर्मल तथा अचल कहते हैं उसको चञ्चल या नश्वर कभी नहीं कह सकते ॥ १७ ॥ उसमें श्राने,