पृष्ठ:दासबोध.pdf/३१०

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समास.] मोक्ष-लक्षण। हुए कल्प व्यतीत हो जाते हैं, इसी कारण, देहबुद्धि से, प्राणी बद्ध होता है ॥५॥ जिसकी यह कल्पना दृढ़ हो गई है कि, " में जीव हूं मुझे बंधन है, मुझे जन्ममरण है और अय किये हुए कर्मों का फल में भोगूंगा । पाप का फल दुःख है और पुण्य का फल सुख है। पापपुण्य अवश्य भोगना पड़ता है । पापपुण्य-भोग छूट नहीं सकता और गर्म- वास भी मिट नहीं सकता" ॥ ६-८॥ उसीका नाम है-बंधा हुआ । जैसे रेशम का कीड़ा अपने को ही बांध कर मृत्यु पाता है उसी प्रकार प्राणी 'जीवपन' के अभिमान से स्वयं बद्ध बन रहा है ॥ ६॥ श्रज्ञान प्राणी (मनुष्य) भगवान् को न जानते हुए कहता है कि " मेरा जन्म- मरण तो छूटता ही नहीं ! ॥ १०॥ श्रव, कुछ दान करूं, जो अगले जन्म का आधार होगा और जिससे मेरा जीवन सुख से व्यतीत होगा ॥११॥ पूर्वजन्म में दान नहीं किया, इसीसे दरिद्रता पाई है-अब तो कुछ करना चाहिए न!" ॥ १२ ॥ इसी विचार से वह पुराने वस्त्र तथा एक तांबे का पैसा दान करता है और कहता है कि अब आगे कोटिगुना पाऊंगा ॥१३॥ कुशावर्त और कुरुक्षेत्र में, दान करने की महिमा सुन कर, दान करता है और मन में करोड़गुना पाने की आशा रखता है !॥१४॥ धेली-सूका (पाठ-चार थाना) दान कर देता है, अतिथि-अभ्यागत को एक टुकड़ा डाल देता है और मन में सोचता है " कि अब तो हमारा करोड़ टुकड़ों का ढेर जमा होगया! ॥ १५ ॥ वह करोड़ टुकड़ों का ढेर मैं अगले जन्म में बैठे बैठे खाऊंगा!" अस्तु । इसी प्रकार प्राणियों की वासना जन्मकर्म में गुंथी रहती है ॥ १६ ॥ जो ऐसी कल्पना करता हो कि, इस जन्म में में जो कुछ दूंगा सो अगले जन्म में पाऊंगा, उसे अशान, बद्ध जानना चाहिए ॥ १७ ॥ बहुत जन्म के बाद नरदेह मिलती है-यदि इस देह में ज्ञान द्वारा सद्गति न हुई तो फिर गर्भवास नहीं छूटता ॥ १८॥ और फिर यह भी नहीं हो सकता कि, गर्भवास नरदेह ही में होता हो; किन्तु अकस्मात् नीच-योनि भोगना पड़ती है ॥ १६ ॥ बहुत से शास्त्रों में, बहुतों ने, बहुत प्रकार से, ऐसा ही निश्चय किया है कि, संसार में फिर नरदेह दुर्लभ है ॥ २० ॥ भागवत में व्यास का वचन है कि, जब पापपुण्य की समता होती है तभी नरदेह मिलती है-अन्यथा नहीं ॥ २१ ॥ नृदेहमाद्य सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारं । मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान्भवाब्धि न तरेत्स. आत्महा ॥१॥