पृष्ठ:दासबोध.pdf/३२५

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२४४ दासबोध । [ दशक ८ लोग कहते हैं कि सारा प्रपंच निरसन करके जो शून्य बच रहता है वही ईश्वर है ॥ ६२॥ वे कहते हैं कि सारा दृश्य अलग करने पर, केवल अदृश्य ही, जो बच जाता है उसीको ब्रह्म समझना चाहिए ॥ ६३ ॥ परन्तु उसे (शून्य को) ब्रह्म नहीं कह सकते। उसको ब्रह्म कहना अपाय ( विघ्न) को उपाय के समान मानना है। शून्यत्व को ब्रह्म कैसे कह सकते हैं ? ॥ ६४ ॥ सम्पूर्ण दृश्य पार कर जाने पर, अदृश्यरूप शृन्यत्व मिलता है । अज्ञान प्राणी इसी शून्य ही को ब्रह्म समझ कर वहीं से लौट पड़ता है ! ॥ ६५ ॥ इधर-इस पार-दृश्य रहता है और उस पार परब्रह्म रहता है; बीच में शुन्यत्व का ठौर है-इसी ठौर को लोग, मन्दबुद्धि के कारण, ब्रह्म कहते हैं ! ॥६६॥ राजा को तो पहचानते नहीं और सेवक को राजा मान लेते हैं ! परन्तु राजा को देखने पर सब निरर्थक मालूम होता है ॥ ६७ ॥ उसी प्रकार शून्यत्व को ब्रह्म मान लेते हैं। पर आगे, परब्रह्म को देखने से, शून्यत्व का सारा भ्रम मिट जाता है ॥६८॥ अस्तु । यह सूक्ष्म विघ्न, विवेक से इस प्रकार अलग करना चाहिए जैसे राज- हंस दूध ग्रहण करके जल छोड़ देता है ॥ ६६ ॥ पहले दृश्य को छोड़ देते हैं; फिर शून्यत्व को लांघते हैं। इसके बाद, तब फिर, कहीं मूलमाया से भी परे जो ब्रह्म है वह मिलता है ॥ ७० ॥ अलग रह कर उसे देखते हैं, इस लिये वृत्ति शून्यत्व में पड़ जाती है; और इसीसे शून्यत्व का भ्रम हृदय में आ जाता है ॥ ७१ ॥ भिन्नता से अनुभव करने को ही शून्य कहते हैं; पर वस्तु' को लक्ष करने के लिए पहले अभिन्न होना चाहिए ॥ ७२ ॥ निश्चय करके 'वस्तु' का देखना वही है कि, जब स्वयं ही 'वस्तु --रूप हो जाय । परन्तु भिन्नता के साथ देखने से तो शून्यत्व ही मिलता है ॥७३॥ अस्तु । शून्य कुछ परब्रह्म नहीं १ एक मत यह है कि, द्रष्टा द्रश्य से अलग है, दूसरा मत यह है कि, द्रष्टा और दृश्य एक ही हैं जो कुछ है सो सब ब्रह्म है । तीसरा मत ऐसा है कि, दृश्य अलग करने पर जो कुछ नहीं है ' यही ब्रह्म है । २ दृश्य पार करके परब्रह्म तक जाते हुए, बीच में “ शून्यत्व" मिलता है। कितने ही अर्द्धज्ञानी तो इसीको ब्रह्म समझ लेते हैं। और यहीं रह जाते हैं। आगे जाने की जरूरत ही नहा समझते; पर यह भ्रम है-ऐसा न करना चाहिए-यह शून्यत्व का विघ्न । विवेक से दूर करके आगे बढ़ना चाहिए, तब कहीं जाकर ब्रह्म मिलेगा। . . -