पृष्ठ:दासबोध.pdf/३४४

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समान] विकल्प-निरसना को कती मानें तो वह निर्विकारी है-(विकार बिना कतृत्व कैसे श्रा सकता है ?) ॥ १३॥ और चदि कहा जाय कि, यह सब माया ने किया तो माया तो स्वयं ही उत्पन्न होती और नाश होती है-माया का तो विस्तार स्वयं ही होता है और विचार करने से जान पड़ता है कि, वह विद भी नहीं है । (इस लिए ऐसी अशाश्वन माया कर्ता कैसे कही जा सकती है ?) ॥ १४॥ इसके सिवाय, यह भी बतलाइये कि, की जन्मता है वह कौन है, उसकी पहचान क्या है और संचित का सक्षण क्या है ? ॥ २५॥ पुण्य और पाप का स्वरूप कैसा है ? और प्रस्तुत शब्दों में शंका उठानेवाला कौन है ? (इन शब्दों द्वारा जिसने शंका उचाई वह " मैं " कौन ई.) ॥ १६ ॥ यह कुछ भी समझ में नहीं पाता। कहते हैं कि, बासना जन्म लेती है; पर वासना तो दिखती ही नहीं और न पकड़ी जा सकती है-जन्म कैसे लेती है ? ॥ १७॥ वासना, कामना, कल्पना, हेतु, भावना, और नाना प्रकार की मति, आदि अनेक वृत्तियां अन्तःकरणपंचक की है ॥ १८ ॥ अस्तु । ये सारे जानपन के यंत्र जानपन का अर्थ है केवल स्मरण; पर उस स्मरण में जन्मसूत्र लगता ? ॥ १६ ॥ देह पांच भूतों की बनी हुई है; वायु उसका चालक है और जानना मन का मनोभाव है ! ॥ २०॥ इस प्रकार यह सब स्वाभाविक ही-श्राप ही आप-होता जाता है-यह सब पंचमहाभूतों का गुन्तादा है-कौन किसको जन्म देता है ? ॥ २६ ॥ अतएव, मेरी राय में तो, जन्म है ही नहीं । जो प्राणी एक बार पैदा हो चुकता है वह फिर जन्म ले ही नहीं सकता! ॥ २२ ॥ अच्छा, जब किसीका जन्म ही नहीं है, तब फिर सन्त-समागम की क्या आवश्यकता है ? ॥ २३ ॥ पहले न तो स्मरण था और न विस्मरण; यह स्मरण बीच ही में आ गया है। वह अन्तःकरण की जाननेवाली कला है ॥२४॥ जब तक चैतन्य रहता है तभी तक स्मरण रहता है और चैतन्य के नष्ट होते ही विस्मरण आ जाता है, तथा विस्मरण के आते ही प्राणी का मरण हो आता है ॥ २५ ॥ अर्थात् जब स्मरण और विस्मरण के नष्ट होते ही देह. को मरण प्राप्त होता है, तब फिर जन्म किसको और कौन देता है ? ॥ २६ ॥ इस लिए न तो जन्म ही है और यातना भी नहीं दिख पड़ती। यह सारी कल्पना व्यर्थ ही बढ़ी हुई है ! ॥ २७ ॥ सारांश, श्रोताओं की आशंका यह ठहरी कि, किसीका जन्म होता ही नहीं अर्थात् जो एक वार भर चुके वे फिर जन्म नहीं पाते ! ॥ २८॥ सूखा हुश्रा काठ फिर हरा नहीं होता; गिरा हुआ फल फिर नहीं लेंगतां इसी प्रकार पतन