३०४ दासबोध। | दशक ११ एक क्षणभर भी समय व्यर्थ नहीं खोता और अपना सांसारिक व्यव- साय (प्रपंच-कार्य) बड़ी दक्षता से करता है ॥ २४ ॥ पहले कुछ कमा लेता है तव' खाता है, फँसे हुए लोगों को उवारता है और शरीर को किसी न किसी अच्छे काम में लगाता है ॥ २५ ॥ कुछ धर्मचर्चा, पुराण हरिकथा, अध्यात्म-निरूपण, श्रादि करता है और दोनों ओर का, (प्रपंच परमार्थ ) एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देता ॥ २६ ॥ ऐसा जो सब प्रकार से सावधान है उसे दुःख कैसे हो सकता है ? उसका अभि- मान विवेक से मिट जाता ॥२७॥ यह समझ कर चलना चाहिए कि, जो कुछ है सव ईश्वर का है। इस प्रकार चलने से उद्वेग समूल नाश हो जाता है ॥२८॥ प्रपंच में जैसे सुवर्ण (धन) चाहिए वैसे ही परमार्थ में पंचीकरण चाहिए । इसके बाद महावाक्यों का विवरण करने से मुक्ति होती है ॥ २६ ॥ कर्म, उपासना और ज्ञान से समाधान होता है। इस लिए परमार्थ के साधनों का श्रवण करते रहना चाहिएः ॥ ३०॥ चौथा समास-सदिचार। ॥ श्रीराम ॥ ब्रह्म निराकार है । वह आकाश की तरह है। परन्तु उसमें विकार नहीं है-वह निर्विकार है॥१॥ ब्रह्म निश्चल है और अंतरात्मा चंचल है। द्रष्टा और साक्षी अन्तरात्मा ही को कहते हैं ॥ २॥ उसीको 'ईश्वर' कहना चाहिए । उसका स्वभाव चंचल है। वह सब जीवों में रह कर उनका पालन करता है ॥ ३ ॥ उसके बिना एदार्थ जड़ हैं; देह व्यर्थ है। उसीसे परमार्थ इत्यादि सब कुछ सालूम होता है ॥ ४॥ कर्ममार्ग, उपासनामार्ग, ज्ञानमार्ग, सिद्धान्तमार्ग, प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग ईश्वर ही चलाता है ॥५॥ चंचल (अन्तरात्मा) के बिना निश्चल (परवल) मालूम नहीं होता और चंचल स्थिर नहीं रहता-इस प्रकार के ये अनेक विचार अच्छी तरह देखो ॥६॥ चंचल अंन्तरात्मा) और निश्चल . (परब्रह्म) की संधि (माया) में बुद्धि चकराती है। कर्ममार्ग इत्यादि उस संधि (भाया) के अनन्तर प्रकट हुए हैं ॥ ७॥ उन सब का मूल ईश्वर' (अन्तरात्मा ) है; परन्तु ईश्वर कान मूल है और न डाल है। परब्रह्म निश्चल और निर्विकारी है ॥८॥ जो निर्विकारी और विकारी को एक कहे वह मूर्ख है ! इससे तो देखते देखते विचार नष्ट होता