पृष्ठ:दासबोध.pdf/३८६

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समास ४ ] सद्विचार। ३०५ है ! ॥ ६ ॥ सारे परमार्थ का मूल केवल पंचीकरण और महावाक्य का विचार है । उसीका वार बार मनन करना चाहिए ॥ १०॥ स्थूल देह "हला है और मूलमाया देह आठवां है । पाठो देहों का निरसन हो जान पर बिकार कहां रह जाता है ? ॥११॥ वास्तव में यह विकार- वान् माया वाजीगरी की तरह सच सी जान पड़ती है। इसको कोई तो समझ जाता है और कोई सच मान लेता है ॥ १२ ॥ निर्विकार उत्पत्ति, स्थिति और संहार से अलग । यही मालूम होने के लिए सारासार का विवेक कहा है ॥ १३॥ जव सार-असार दोनों को एक बना दिया तब वहां विवेक कहां रहा? बेसमझ लोग परीक्षा नहीं जानते ! ॥ १४ ॥ जो एक सव में फैला हुआ है वही अन्तरात्मा कह- लाता है । वह नाना प्रकार के विकारों से विकृत है; अतएव वह निर्वि- कारी नहीं हो सकता ॥ १५ ॥ यह प्रगट ही है । अपने अनुभव से देखना चाहिए । अविवेकी पुरुप को यह नहीं जान पड़ता कि, क्या रहता है और क्या जाता है ! ॥ १६ ॥ जो अखंड रीति से उत्पन्न और नाश होता रहता है उसे सब लोग प्रत्यक्ष देखते ही हैं ॥ १७ ॥ एक रोता है, एक तड़फड़ाता है, एक दूसरे की नरी धरता है और एक दूसरे पर इस प्रकार टूटे पड़ते हैं जैसे अकाल के मारे आतुर हो ॥ १८ ॥ न्याय नहीं है, नीति नहीं है। इस प्रकार ये लोग वर्तते हैं और विवेक- हीन सभी को उत्तम कहते हैं ॥ १६ ॥ एक तरफ तो पत्थर छोड़ कर सोना ले लेते हैं, माटी छोड़ कर अन्न खा लेते हैं, और दूसरी तरफ मूर्खता से सभी को उत्तम बतलाते हैं ! ॥ २० ॥ इस लिए इसका विचार करना चाहिए । सत्य मार्ग ही का अनुसरण करना चाहिए और विवेक का लाभ जान लेना चाहिए ॥ २१ ॥ जब हीरा और पत्थर को एक ही समान समझ लिया तब वहां परीक्षा कहां रही? अतएव, चतुरों को परीक्षा करनी चाहिए ॥ २२ ॥ जहां परीक्षा का अभाव होता है वहां कष्ट ही होता है। सब धान बाईस पंसेरी" करना लंठपन है !॥२३॥ जो ग्राह्य हो वही लेना चाहिए और जो अग्राह्य हो उसे छोड़ देना चाहिए । ऊंच-नीच पहचानने का ही नाम ज्ञान है ॥ २४ ॥ लोग (नर- देह की पूंजी लेकर) संसार के बाजार में आते हैं। उनमें से कोई तो (अपनी इस पूंजी का अच्छा उपयोग करके ) लाभ पाकर श्रीमान् हो जाते हैं और कोई कोई ठगा कर (दुरुपयोग करके) अपनी पूंजी भी गयां बैठते हैं ! ॥ २५ ॥ परन्तु ज्ञाता पुरुप को ऐसा न करना चाहिए-(अर्थात् यह नरदेहरूप अपनी पूंजी भी न खो बैठना चाहिए ) सार ढूँढ़ लेना