पृष्ठ:दासबोध.pdf/४०७

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दासबोध। [ दशक १२ '. के लिए भ्रष्ट हो गये ॥ ११ ॥ जिन लोगों में श्रादि से ही वैराग्य नहीं है, प्रत्यय का ज्ञान नहीं है, शुचि प्राचार भी नहीं है और भजन का नाम भी नहीं जानते, इस प्रकार के आदमी अपने को सज्जन कहते हैं। पर वास्तव में वे भ्रम में पड़े हुए हैं ॥ १२ ॥ १३ ॥ अपने पूर्वश्त कर्मों, पर पश्चात्ताप न होना ही बड़ा भारी पाप है. ऐसा बद्ध पुरुष परोत्कर्ष देख कर ही क्षण क्षण में दुखी होता रहता है ॥ १४॥ यह तो लोग जानते ही हैं कि, यहां ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि, हमारे पास नहीं है, इस लिए तुम्हारे पास होना भी अच्छा नहीं लगता । खाते पीते पुरुष को दरिद्र पुरुप देख ही नहीं सकते ॥ १५॥ दिव या लोग बड़े बड़े भाग्यवानों की निन्दा करते हैं और साह को देख कर चोर तड़फड़ाते (यह सब हाल देख कर जान पड़ता है कि,) वैराग्य के समान और कोई भाग्य नहीं है। जहां वैराग्य नहीं है, वहां अभाग्य है और बिना वैराग्य के परमार्थ करना भी योग्य नहीं है ॥ १७ ॥ जो प्रत्ययज्ञानी और वीतरागी है, जो विवेकबल से सकल-त्यागी है, उसीको महायोगी ईश्वरी पुरुष समझना चाहिए ॥ १८ ॥ जो महादेव पाठो सिद्धियों की . उपेक्षा करके योगदीक्षा लेकर घर घर भिक्षा मांगते फिरते हैं ॥१६॥ उनकी बराबरी कोई वेषधारी पुरुष कैसे कर सकता है ? इस लिए सब बराबर नहीं हो सकते ॥ २० ॥ उदासी और विवेकी को सब लोग ढूँढ़ते हैं; परन्तु लालची, मूर्ख, दरिद्री और दुर्वल को कोई नहीं पूछूता ॥२१॥ जो विचार से च्युत होते हैं, प्राचार से भ्रष्ट होते हैं और विषयलोभी बन कर वैराग्य करना भूल जाते हैं ॥ २२ ॥ जिन्हें भजन अच्छा नहीं लगता; शुभ पुरश्चरण कभी जिनसे होता नहीं, ऐसे लोगों से भलों की पटती नहीं ॥ २३ ॥ वैराग्यशील होने पर भी जो आचार से भ्रष्ट नहीं होते, ज्ञानी होकर भी जो भजन नहीं छोड़ते और व्युत्पन्न होकर भी जो वितण्डावाद में नहीं पड़ते, ऐसे लोग बहुत थोड़े हैं ॥२४॥ परिश्रम का कष्ट सहने से खेत में अन्न तैयार होता है; अच्छी वस्तु, तत्काल बिक जाती है, ज्ञानी पुरुष की सेवा के लिए सब लोग कौतुक से दौड़ते हैं ॥ २५॥ परन्तु जो ढुंराशा रखते हैं उनका महत्व नहीं रहता और ज्ञान भ्रष्ट हो जाता है ॥ २६ ॥ निरर्थक विषयों का त्याग करके केवल आवश्यक विषयों को ही ग्रहण करना विषयत्याग का मुख्य लक्षण हैं ॥ २७ ॥ परमात्मा सर्वकर्ता है; माया कुछ नहीं है; यह विवेकी लोगों