पृष्ठ:दासबोध.pdf/४१६

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समास १] आत्मानात्म-विवेक। ३३७ मूढ़ होता है, न्यायवन्त होता है और उद्धट हाता है वहा आत्मा है ॥ १६ ॥ जो धीर, उदार, कृपण, पागल, विचक्षण, उच्छृखल, सहनशील होता है वही आत्मा है ॥ १७ ॥ जो विद्या-कुविद्या दोनों में आनन्दरूप से छाया रहता है। जहां देखो वहां, सव ओर, जो दिखता है वही आत्मा है ॥ १८ ॥ जो सोता है, उठता है, बैठता है, चलता है, दौड़ता है, डोलता है, निहुरता है; और साथी-सलाही बनाता है वही आत्मा है ॥ १६ ॥ जो पोथी पढ़ता है, अर्थ बतलाता है, ताल धरता है, गाने लगता है, वादविवाद करता है वही आत्मा है ॥ २० ॥ जब देह में श्रात्मा नहीं रहता तब वह मुर्दा हो जाता है । श्रात्मा देह के साथ से सब कुछ करता है ॥ २१ ॥ एक के बिना एक बेकाम है; शरीर और आत्मा दोनों के संयोग से सब व्यापार चलता है ॥ २२ ॥ देह अनित्य है, आत्मा नित्य है-यही नित्य-अनित्य का विवेक है । उस सूक्ष्म का सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्ञानी जानते हैं ॥ २३ ॥ पिंड में देहधर्ता या देही जीव है; ब्रह्मांड में देही शिव है और ईश्वर तनुचतुष्टय में देही ईश्वर है ॥ २४॥ त्रिगुण से परे जो " अर्धनारीनटेश्वर" ईश्वर है उसीसे सारी सृष्टि का विस्तार हुआ है ॥ २५ ॥ अच्छी तरह से विचार करने से जान पड़ता है कि, वहां स्त्री पुरुष कुछ नहीं है; कुछ थोड़ा चंचलरूप सा जान पड़ता है ॥ २६ ॥ आदि से लेकर अन्त तक-ब्रह्मा-विष्णु-महेश से लेकर चीटी तक-सब देहधारी ही हैं। यह नित्यानित्य का विवेक चतुरों को जानना चाहिए ॥ २७ ॥ जितना कुछ जड़ है सब अनित्य है; और जितना कुछ सूक्ष्म सब नित्य है-इसमें भी जो नित्य-अनित्य है वह आगे कहा है ॥ २८॥ विवेक से इस स्थूल और सूक्ष्म दोनों को लांघ जाते हैं; कारण- महाकारण को भी छोड़ देते हैं; और विराट तथा हिरण्यगर्भ तक का खंडन कर डालते हैं ॥ २६ ॥ इसके बाद श्रव्याकृत और मूलप्रकृति में जाकर वृत्ति बैठती है; अब इस वृत्ति की भी निवृत्ति होने के लिए अध्यात्म-निरूपण सुनना चाहिए ॥ ३०॥ यहां जो आत्म-अनात्म-विवेक बतलाया गया उससे चंचल आत्मा प्रत्यय में आ जाता है। अब अगले समास में सार-असार-विचार बतलाया गया है ॥३१॥ sho