पृष्ठ:दासबोध.pdf/४१७

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दासबोध । [ दशक १३ दूसरा समास-सारासार-विचार । ॥ श्रीराम ।। यह जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड का आडम्बर देख पड़ता है उसमें कौन सार है और कौन प्रसार है-सो पहचानना चाहिए ॥१॥ जो कुछ देख पड़ता है वह नाश होता है और जो आता है वह जाता है। अब सार उसीको जानना चाहिए जो सदा बना ही रहता है ॥२॥ पिछले समास से जो श्रात्मानात्म-विवेक बतलाया गया उसमें अनात्मा को पहचान कर छोड़ दिया; और आत्मा को जानने से मूल का पता लग गया ॥३॥ परन्तु उस मूल में जो वृत्ति रह जाती है उसकी भी निवृत्ति होनी चाहिए; इसके लिए श्रोताओं को सारासार का विचार अच्छी तरह करना चाहिए ॥ ४॥ नित्यानित्य-विवेक किया और आत्मा को नित्य ठहराया; परन्तु उस निराकार में भी निवृत्तिरूप से हेतु (निवृत्त होने की भावना) बनी रहती है ॥५॥ यह 'हेतु' भी चंचल है; वास्तव में निश्चल निर्गुण है । सारासार के विचार से इस चंचल (श्रात्मभावना) का भी निरसन हो जाता है ॥६॥ यह नश्वर है; इसी लिए चंचल है। वह शाश्वत है; इसी लिए निश्चल है । निश्चल के तई चंचल अवश्य ही उड़ जाता है ॥७॥ ज्ञान और उपासना दोनों को एक ही समझो । उपासना से लोगों का, जगत् का, उद्धार होता है ॥८॥ द्रष्टा, साक्षी, ज्ञाता, ज्ञानघन, चैतन्य, और जिसकी सब पर सत्ता है वह, सब ज्ञानस्वरूप परब्रह्म ही है। अच्छी तरह विचार करो ॥ ६ ॥ परन्तु उस ज्ञान का भी विज्ञान हो जाता है । अनेको मतों का अच्छी तरह विचार करो। जितना कुछ चंचल है वह सब नाश हो जाता है ॥ १० ॥ जिसके मन में अभी तक यह सन्देह बना है कि, नाशवंत नाश होगा या नहीं, वह पुरुष सहसा ज्ञान का अधिकारी नहीं हो सकता ॥ ११ ॥ नित्य का निश्चय हो जाने पर भी यदि संदेह बना रहा तो समझ लो कि, वह महा मृगजल में बह रहा है । ॥१२॥ परब्रह्म का क्षय नहीं है वह अक्षय्य है, वह सर्वव्यापी है, उस निर्विकार 'हेतु' या संदेह कुछ नहीं है ॥ १३ ॥ वह बहुत बड़ा और सघन है; श्रादि, मध्य और अन्त में भी वह अचल, अटल, पूर्ण और जैसा का तैसा बना रहता है ॥ १४ ॥ देखने में वह गगन कासा है; गगन से भी अधिक सधन है। उसमें अंजन (मल, तम या अनित्यता) नहीं है-वह निरंजन है और सदा एकसा