पृष्ठ:दासबोध.pdf/४२५

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दासबोध। [.दशक १३ अपने को कर्ता कहना व्यर्थ है ॥ २६ ॥ और जब हम कर्ता ही नहीं हैं तब भोक्ता कैसे हो सकते हैं ? यह विचार की बात अविचार से नहीं मालूम हो सकती ॥ २७ ॥ अविचार और विचार ऐसे हैं जैसे प्रकाश और अंधकार! विकार और निर्विकार एक नहीं हो सकते ॥२८॥ जहां विचार नहीं है वहां कुछ भी नहीं चलता-सच बात ही कदापि अनुमान । में नहीं आती ॥ २६ ॥ अनुभव को न्याय और वे अनुभव को अन्याय कहते हैं । जन्मान्ध पुरुष रत्नों की परीक्षा कैसे कर सकता है ? ॥ ३०॥ इस लिए ऐसे ज्ञाता को धन्य कहना चाहिए, जो निर्गुण में अनन्य रहता है। वह परमपुरुप, अात्मनिवेदन के कारण, सब को मान्य होता है ॥३१॥ सातवाँ समास-अनुभव का विचार । ॥ श्रीराम ॥ वह निर्मल, निश्चल और निराभास है। उसे आकाश का दृष्टान्त दिया जाता है । जो यह अवकाश या पोलापन फैला हुया है उसीको आकाश कहते हैं ॥ १॥ पहले अवकाश है फिर उसमें सब पदार्थ हैं- (पहले आकाश, फिर उसमें-या उससे-वाकी चार भूत हैं । ) अनुभव से देखने पर यह यथार्थ है; पर विना अनुभव के सब कुछ व्यर्थ है ॥२॥ ब्रह्म निश्चल है और आत्मा चंचल है । आत्मा को वायु का दृष्टांत दिया जा सकता है ॥ ३॥ घटाकाश ब्रह्म का दृष्टान्त है, घटबिंब (आकाश में) आत्मा का दृष्टान्त है। विवरण करने से दोनों का अर्थ अलग अलग है ॥ ४ ॥ जितना होता है उसे भूत कहते हैं और जितना होता है वह सब नाश होता है। चंचल पाता है और चला जाता है; यह जानना चाहिए ॥ ५॥ अविद्या जड़ है, आत्मा चंचल है । जड़ (अविद्या ) कपूर है और आत्मा अनल (अग्नि ) है-दोनों जल कर तत्काल बुझ जाते हैं ॥ ६ ॥ ब्रह्म और आकाश निश्चल जाति के हैं, श्रात्मा और वायु चंचल जाति के हैं-खरे खोटे की पहचान परीक्षावान् करते हैं ॥ ७ ॥ जड़ अनेक है, अात्मा एक है-थही यात्म-अनात्म का विवेक है । जो जगत् का व्यापार चलाता है उसे जगन्नायक कहते हैं ॥८॥ जड़ अनात्मा है, चेतन अात्मा है और सब में जो वर्तता है वह सर्वात्मा है-सब मिल कर चंचलात्मा है-यह निश्चल नहीं है ॥ ॥ परब्रह्म निश्चल है वहां दृश्य भ्रम नहीं है। विमलं ब्रह्म निर्धम है-अचल है ॥१०॥ पहले आत्म-अनात्म का विवेक