पृष्ठ:दासबोध.pdf/४२९

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+ .३५० दासबोध । [ दशक १६ कर्ता कौन है, बिलकुल व्यर्थ है; अतएव यही ठीक है कि, यह सब स्वभाव ही से हुआ है!॥३१॥एक सगुण हैं और एक निर्गुण है; अब कर्तापन किस में लगाऊं ? इस अर्थ का अच्छी तरह विचार करो ॥ ३२ ॥ यदि कहा जाय कि, सगुण ने सगुण वनाया तो वह तो पहले ही हो चुका है, वनावेगा क्या? और इधर निर्गुण में कर्तव्यता कभी लगाई नहीं जा सकती ॥३३॥ यहां कर्ता ही नहीं दिखता! अनुभव से समझना चाहिए। क्योंकि दृश्य सत्य नहीं है ॥ ३४ ॥ जो कुछ किया गया वह सभी मिथ्या है; तब फिर कर्ता का नाम ही लेना व्यर्थ है ! वक्ता कहता है कि, अरे ! विवेक से अच्छी तरह देखो ॥ ३५॥ अच्छी तरह विचार करने से प्रतीति हो जाती है और जब अपने अंतःकरण से प्रतीति होगई तब फिर गड़बड़ क्यों करना चाहिए ? ॥ ३६ ॥ अस्तु । यह कथन बस करो। जो विवेकी है वही यह बात जानता है। पूर्वपक्ष उड़ाना पड़ता है, अन्यथा यह अनिर्वाच्य है ॥ ३७ ॥ तब श्रोता प्रश्न करता है कि, देह में सुख- दुख भोगनेवाला कौन है ? अच्छा, अव आगे यही बतलाया जाता नववाँ समास-आत्मा का सुख-दुख-भोग । ॥ श्रीराम ॥ श्रात्मा को, शरीर के योग से, उद्वेग और चिंता करनी पड़ती है। यह तो प्रगट ही है कि, आत्मा शरीर के योग से जागृत रहता है ॥ १॥ देह यदि अन्न ही न खाय तो भी आत्मा नहीं जग सकता, और आत्मा के बिना देह में चेतना भी नहीं रह सकती ॥२॥ एक दूसरे के बिना कुछ नहीं कर सकता । कोई भी काम हो, दोनों के संयोग से ॥३॥ देह में तो चेतना नहीं है और इधर श्रात्मा पदार्थ को उठा नहीं सकता; अब कैसे काम चले ? स्वप्न-भोजन से कहीं पेट भरता है ? ॥४॥ यह चमत्कार तो देखो कि, श्रात्मा स्वप्नावस्था में जाता है; पर देह में भी रहता क्योंकि उसनींदेपन में वह खुजलाता भी तो है ! ॥५॥ अन्नरस से शरीर बढ़ता है, शरीर के अनुसार विचार बढ़ता है और वृद्धपन में शरीर और विचार दोनों कम हो जाते हैं ॥ ६॥ मादक पदार्थ तो शरीर खाता है; परन्तु उसके योग से आत्मा भ्रम में पड़ता है और घिस्सरण के कारण उसका संब होश उड़ जाता है ॥ ७॥ विष तो