पृष्ठ:दासबोध.pdf/४३०

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समास ] आत्मा का सुख-दुख-भोग । शरीर खाता है; परन्तु आत्मा चला जाता है । अतएव बढ़ना और घटना आत्मा के तई अवश्य है ॥८॥ बढ़ना-घटना, जाना-याना, सुख-दुख, आदि नाना प्रकार के भोग देह के योग से आत्मा को भोगने पड़ते है ॥॥ चीटियों या दीमकों के घर की तरह यह शरीर भी पोला वना हुना है ॥ १० ॥ सम्पूर्ण शरीर में छोटी-बड़ी अनेक नाड़ियां भरी हुई हैं । उन नाड़ियों के भीतर भीतर पोले मार्ग बने हैं ॥ ११ ॥ प्राणी जो अन्न-पानी खाता है उसका अन्नरस होता है और उस अन्न-रस को वायु श्वासोछवास से शरीर भर में दौड़ाता है ॥ १२॥ नाड़ियों के द्वारा पानी दौड़ता है, पानी में हवा खेलती है, और हवा के साथ आत्मा भी फिरता है ॥ १३ ॥ तृपा से शरीर के कुम्हलाने का विचार जव आत्मा को मालूम होता है तब वह शरीर को उठा कर पानी की तरफ चलाता है ॥ १४ ॥ पानी माँगता है, शब्द बुलाता है, मार्ग देख कर शरीर चलाता है और मौका ना पड़ने पर सारा शरीर हिलाता है ॥ १५ ॥ जब आत्मा जानता है कि, भूख लगी है तव वह देह को उठाता है और घरवालों को वाच्य-कुवाच्य बुलवाता है ॥ १६ ॥ स्त्रियों में आत्मा कहता है कि, " होगया होगया "-देह को नहला कर ले आता है और पैरों में भर कर जल्दी जल्दी चलवाता है॥१७॥भोजन करनेवाले को पात्र (थाली आदि) पर लाकर बैठाता है, नेत्रों में आकर पात्र को देखता है और हाथ से आचमन कराता है ॥ १८॥ इसके बाद फिर हाथ से कौर उठवाता है, मुख में जाकर मुख पसराता है और दातों से अच्छी तरह कौर चबवाता है ॥ १६॥ स्वयं जिव्हा में रह कर सरस पदार्थों का स्वाद लेता है और यदि वाल या कंकड़ पड़ जाता है तो उसी वक्त यूँक देता है! ॥२०॥ अलोना मालूम होने से नमक मागता है, स्त्री को "अरी ! क्यों री !" बकता है और आखें लाल करके गुस्से के साथ देखता है ! ॥ २१ ॥ भोजनं अच्छा लगने से आनन्दित होता है और न अच्छा लगने से बहुत खेद करता है । तथा कुवचन कह कर आत्मा को दुखाता है ॥ २२ ॥ नाना प्रकार के अन्नों की मिठास और नाना रसों का स्वाद पहचानता है। कङ्का लगने पर मस्तक हिलाता है और खाँसता है ! ॥ २३ ॥ तथा क्रोध में आकर इस प्रकार कटु वचन कहता है- बहुत मिरचे डाल दिये ! क्या बनाती है ? पत्थर" ! ॥२॥ यदि कभी बहुत घी खा जाता है तो भोजन के बाद तुरन्त ही लोटा उठा कर खूब पानी पीने लगता है ॥ २५॥ इस प्रकार देह में सुखदुख भोगनेवाला केवल आत्मा ही है । श्रात्मा "