पृष्ठ:दासबोध.pdf/४३१

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३५२ दासबोध । [ दशक १३ के बिना देह व्यर्थ है-भुर्दा है ॥ २६ ॥ मन की अनन्त वृत्तियों को ही श्रात्मस्थिति जानना चाहिए। तीनों लोक में जितनी व्यक्तियां हैं सब में आत्मा है ॥ २७ ॥ जग में जगदात्मा है, विश्व में विश्वात्मा है और जो नाना रूप से सब का व्यापार चलाता है वह सर्वात्मा है ॥२८॥ वह सूंघता है, चाखता है, सुनता है, देखता है, कोमल-कठिन पहचानता है और ठंढा या गर्म तुरंत ही जान लेता है ॥ २६ ॥ सावधानी के साथ लीला करता है, बहुत धरा-उठाई करता है; इस धूर्त (चतुर) को धूर्त ही पहचान सकता है ! ॥ ३० ॥ वायु के साथ अच्छा (परिमल ) बुरा (धूल ) सब कुछ आता है पर वायु स्वयं निर्मल रहता है ॥ ३१ ॥ शीत, उष्ण, सुवास, कुवास, सन वायु के साथ रहते हैं; पर वे उससे मिल कर नहीं रह सकते ॥ ३२ ॥ वायु के साथ रोग आते हैं, भूत दौड़ते हैं और उसीके साथ धूल और कुहरा आता है ॥ ३३ ॥ परन्तु यह कुछ भी वायु के साथ ठहरता नहीं, इसी प्रकार श्रात्मा के साथ वायु भी नहीं टिकता । श्रात्मा की चपलता वायु से अधिक है ॥ ३४॥ वायु कठिन पदार्थ में पड़ जाता है; पर श्रात्मा उसमें भी भिद जाता है । तथापि उस कठिन पदार्थ में छेद नहीं होता! ॥ ३५ ॥ वायु के चलते समय एक प्रकार का शब्द होता है; पर आत्मा का शब्द आदि कुछ नहीं होता। मनन करने से भीतर ही भीतर उसका चुपके से ज्ञान हो जाता है ॥ ३६ ॥ शरीर के साथ जो भलाई की जाती है वह श्रात्मा तक पहुँचती है। इस प्रकार शरीरयोग से उसे समाधान होता है ॥ ३७ ॥ देह को छोड़ कर चाहे जो किया जाय; पर आत्मा तक नहीं पहुँच सकता । देह ही के योग से वासना तृप्त होती है ॥ ३८ ॥ देह और प्रात्मा के ऐसे ही अनेक कौतुक हैं; पर विना देह के आत्मा को अड़चन पड़ती है ॥ ३६ ॥ देह और आत्मा दोनों के एकत्र होने से बहुत कुछ हो सकता है। परन्तु अलग रहने से कुछ भी नहीं हो सकता। देह और आत्मा के योग से, विवेकद्वारा, तीनों लोकों का ज्ञान हो सकता है ! ॥४०॥ दसवाँ समास-उपदेश-निरूपण । ॥ श्रीराम ॥ पत्र, पुष्प, फल, बीज, पाषाण और कौड़ियों की मालाएं सूत से गुंथी जाती हैं ॥ १ ॥ स्फटिक 'जहर-मुहरा' काष्ठ, चन्दन, धातु, रत्न, आदि 1