पृष्ठ:दासबोध.pdf/४३६

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समास १ निस्पृह-लक्षण । न छोड़ना चाहिए और किसीके विषय में कठिनता न रखनी चाहिए ॥ ३४ ॥ कठोर वचन न वोलना चाहिए, कठिन आज्ञा न करनी चाहिए, और कुछ भी हो, कठिन धैर्य न छोड़ना चाहिए ॥ ३५ ॥ स्वयं आसक्त न होना चाहिए, किये बिना कहना न चाहिए और शिष्यवर्गों से बहुत कुछ माँगना न चाहिए ॥ ३६ ॥ उद्धत शब्द न बोलना चाहिए, इन्द्रियों का स्मरण न करना चाहिए और स्वच्छन्दता से शाक मार्ग में न चलना चाहिए ॥ ३७॥ नीच कृति में लजाना न चाहिए, वैभव में मस्त न हो जाना चाहिए और जानबूझ कर क्रोध में न पाना चाहिए ॥ ३८ ॥ बड़प्पन मैं भूलना न चाहिए, न्यायनीति छोड़ना न चाहिए और कुछ भी हो, अप्रामाणिक वर्ताव न करना चाहिए ॥ ३६॥ बिना जाने कहना न चाहिए, अनुमान से निश्चय न करना चाहिए और मूर्खता से कहने का बुरा न मानना चाहिए ॥ ४०॥ सावधानी न छोड़ना चाहिए, व्यापकता न छोड़ना चाहिए और आलस में सुख न मानना चाहिए ॥४१॥ मन में विकल्प न रखना चाहिए, स्वार्थ की आज्ञा न देना चाहिए और यदि दी हो तो अपने को आगे न करना चाहिए ॥ ४२ ॥ प्रसंग बिना बोलना न चाहिए, क्रम छोड़ कर जाना न चाहिए और बिना विचारे, अविचार- पंथ में, न जाना चाहिए ॥ ४३ ॥ परोपंकार न छोड़ना चाहिए, परपीड़ा न करनी चाहिए और किसीके विषय में मन मैला न करना चाहिए ॥ ४ ॥ भोलापन न छोड़ना चाहिए, महंती न छोड़ना चाहिए और द्रव्य के लिए 'कीर्तन करते हुए न घूमना चाहिए ॥ ४५ ॥ संशयात्मक न बोलना चाहिए, बहुत निश्चय न करना चाहिए और ग्रन्थ समझे विना उसे दूसरे को समझाने के लिए हाथ में न लेना चाहिए ॥ ४६ ॥ जान- वूझ कर पूछना न चाहिए, अहंभाव प्रगटन करना चाहिए और किसीसे यह न कहना चाहिए कि वताऊंगा ॥ ४७ ॥ ज्ञानगर्व न रखना चाहिए, सहसा किसीको कष्ट न देना चाहिए और किसीखे कहीं वाद न करना चाहिए ॥४८॥ स्वार्थबुद्धि न रखना चाहिए, कारवार में न पड़ना चाहिए और राजद्वार में कार्यकर्ता न बनना चाहिए ॥ ४६॥ किसीको भरोसा न देना चाहिए; जो भिक्षा न दी जा सके वह न माँगना चाहिए और भिक्षा के लिए अपनी परम्परान बतलाना चाहिए॥५०॥व्याह-शादी के काम में और मध्यस्थी के काम में न पड़ना चाहिए । 'प्रपंच' की उपाधि शरीर के साथ न लगाना चाहिए ॥ ५१ ॥ प्रपंच के झगड़े में न पड़ना चाहिए, बुरा अन्न न खाना चाहिए और पाहुने के समान निमंत्रण न लेना चाहिए ॥ ५२ ॥ श्राद्ध-पन्न, छठी, छमछी (छमासी), रोग