पृष्ठ:दासबोध.pdf/५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दासबोध। -- - कमाई हुई जायदाद का हिस्सा लेना उचित नहीं समझा, इसलिए वे हिवरा से कुछ दूर वडगाँव को चले गये । उस गाँव की यस्ती उजाड़ हो गई थी और वहाँ ग्याल जाति के कुछ लोग गाय चरान के लिए जंगल में रहते थे। उन ग्वालों के मुखिया लखमाजी को जमीदार बना कर दशरथपन्त वहाँ पटवारी और पुरोहित का काम करने लगे। उस गाँव का नाम उन्होंन जाँत्र खसा । यह गाँव इस समय श्रीरामदासस्वामी की जन्मभूमि होने के कारण अत्यन्त पवित्र क्षेत्र माना जाता है। कुछ दिनों के बाद जाँच के आस-पास कई गाँव बस गये और उस इलाके के पटवारी और पुरोहित का काम दशरथपन्त ही को मिला । वे बड़े भगव- हाथ। उनके मुख्य उपास्य देव श्रीरामचन्द्र ही थे । उनके छ पुत्र हुए 1 ज्येष्ठ पुत्र का नाम रामाजीपन्त था। पिता के मरने वाद रामाजीपन्त को जाँघ इलाके की वृत्ति मिली । उपर्युक्त कृष्णाजीपंत, दशरथपन्त और रामाजीपंत श्रीसमर्थ रामदासस्वामी के वंश की पहली, दूसरी और तीसरी पीढ़ी के मूल पुरुष थे । रामाजीपन्त के बाद उन्नीसवीं पीढ़ी में सूर्याजी पन्त नाम के प्रसिद्ध भगवद्रत और ब्रह्मज्ञानी पुरुष हो गये। इनकी स्त्री का नाम राणुबाई था। यही सूर्याजीपन्त और राणुवाई रामदासम्वामी के पिता-माता है। अपने यहाँ भगवद्भक्तों के वंश में एक विशेष प्रकार का चमत्कार, पाया जाता है। ऐसे वंशों में, चार ही पाँच वर्ष के बालकों में, विरक्ति और भक्ति के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। इन लोक के चार पाँच वर्षों के संस्कार से ही इतना परिणाम वालक पर होना असम्भव है। जान पड़ता है कि. यह संस्कार पूर्वजन्मों का होता है। अस्तु । सूर्याजीपन्त का भी यही हाल था । वालपन हो से उनमें भगवद्भक्ति और विरक्ति तथा सद्गुणों के चिन्ह प्रकट होने लगे थे । बारह वर्ष की उम्र से उनकी भक्ति सूर्यनारायण पर जम गई थी। वे पट- वारी का सरकारी काम तो करते ही थे; पर उनका शेष सारा समय सूर्यनारायण की उपासना में ही व्यतीत होता था। इस प्रकार ३६ वर्ष की अवस्था तक उन्होंने सूर्यदेव का अनुष्ठान किया। कहते हैं कि, अन्त में सूर्यनारायण ने, प्रसन्न होकर, स्वयं अपनी इच्छा से, उन्हें दो पुत्र होने का वरदान दिया । शाके १५२७ ( सन् १६०५) में सूर्याजीपन्त के प्रथम पुत्र का जन्म हुआ । उसका नाम गंगाधर रक्खा गया ! यही आगे अंष्ट" और रामारामदास " के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके जन्म के दो बाई वर्ष बाद, शाके १५३० (सन् १६०८ ई. के अप्रैल में ) कोल नामक संवत्सर में में, चैत्र शुक्ल ९ के दिन, दोपहर के समय, अर्थात् ठीक रामजन्म के समय, साध्वी राणु- चाई और सूर्याजोपन्त के दूसरे पुत्र का अवतार हुआ । उसका नाम नारायण रक्खा गया । नही नारायण श्रीसमर्थ रामदासस्वामी के नाम के प्रसिद्ध है और यही आज हमारे प्रस्तुत लेख के चरितनायक हैं । जब से सूर्याजीपन्त के यहाँ उनका जन्म हुआ तबसे उनके घर में सुख, समृद्धि और शान्ति की बढ़ती होने लगी । उस समय महाराष्ट्र-प्रान्त में एकनाथ महाराज बड़े प्रसिद्ध और ब्रह्मज्ञानी साधु थे। सूर्याजीपन्त अपनी स्त्री राणुवाईसहित प्रति वर्ष उनके दर्शनों के लिए जाते थे । सूर्याजीपन्त जव उनके यहाँ से दर्शन करके विदा होने ,