पृष्ठ:दासबोध.pdf/५०३

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४२४ दासबोध । [ दशक-१७ दूसरा समास-शिवशक्ति-निरूपण । ॥ श्रीराम ।। ब्रह्म, आकाश की तरह, निर्मल और निश्चल है । वह निराकार, केवल और निर्विकार है ॥ १॥ उसका अन्त ही नहीं है-अनन्त है, शाश्वत और सदोदित है, वह अशान्त नहीं है-सदा शान्त रहता है ॥ २॥ पर- ब्रह्म अविनाश है, वह आकाश की तरह व्याप्त है, न टूटता है, न फूटता है, निरन्तर जैसा का तैसा बना रहता है ॥३॥ वहां न ज्ञान है न अज्ञान है, न स्मरण है न विस्मरण है, वह अखंड निर्गुण और निराव- लम्ब है ॥४॥ वहां चन्द्र, सूर्य, अग्नि, अँधेरा, उजेला, आदि कुछ नहीं है। उपाधि से अलग एक निरुपाधि ब्रह्म ही है ॥ ५॥ निश्चल में जो स्मरण जागृत होता है उसे चैतन्य मान लेते हैं और गुण की समानता के कारण उसे गुणसाम्य कहते हैं ॥ ६ ॥ जैसे आकाश में वादल की छाया आ जाती है उसी तरह (परब्रह्म में ) मूलमाया जानो। (जिस प्रकार आकाश में बादल के आने जाने में देर नहीं लगती उसी प्रकार) मूलमाया के उद्भव और लय में देर नहीं लगती ॥ ७ ॥ निर्गुण में जो गुण का विकार है वही पड्गुणेश्वर है और उसीको 'अर्धनारी नटेश्वर, कहते हैं ॥ ८ ॥ उसीको श्रादिशक्ति और शिवशक्ति कहते हैं; वही सब की मूलशक्ति है । उसीसे नाना व्यक्तियां निर्माण हुई हैं ॥ ॥ उसीसे शुद्ध सत्व और रज-तम की उत्पत्ति होती है, जिन्हें महत्तत्व और गुण- क्षोभिणी माया कहते हैं ॥ १० ॥ इस पर शंका हो सकती है कि, मूल में जब व्यक्ति ही नहीं रहती तब वहां शिवशक्ति कहां से आवेगी ? अच्छा, सावधानचित्त होकर इसका समाधान सुनो ॥ ११ ॥ ब्रह्मांड से पिंड का अथवा पिंड से ब्रह्मांड का विचार करने पर इसका निश्चय हो जाता है ॥ १२॥ बीज फोड़ कर देखने से उसमें फल नहीं देख पड़ता; पर बीज से वृक्ष के बढ़ने पर उसमें अनेक फल आते हैं ॥ १३ ॥ फल फोड़ने से उसमें बीज दिखते हैं, बीज फोड़ने से उसमें फल नहीं दिखते-यही हाल पिंड-ब्रह्मांड का है ॥ १४ ॥ पिंड में नरनारी दोनों भेद स्पष्ट दिख पड़ते हैं, यदि मूल में न होते तो आगे फिर स्पष्ट कैसे हो सकते ? अर्थात् नरनारी दोनों मूलमाया ही में, प्रकृतिपुरुष के रूप में रहते हैं ॥ १५ ॥ कल्पनाएं, जो नाना बीजरूप हैं, उनमें क्या नहीं होता ? संव कुछ होता है, पर सूक्ष्मरूपं से होता है; इसी लिए एकाएक भासता