पृष्ठ:दासबोध.pdf/५२८

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युद्ध समास ५] समाधान की युमित नाराज हो तो क्यों? ॥ १३ ॥ जैसे कसौटी में कस कर और तचा कर शुद्ध सोना लिया जाता है वैसे ही श्रवण सनन से मुख्य अनुभव जान लेना चाहिए ॥ १४॥ वैद्य पर विश्वास श्राता नहीं और व्यथा दूर होती नहीं तो फिर लोगों पर क्रोध क्यों करना चाहिए ? ॥ १५ ॥ मुठाई नहीं चलती और न वह किसीको पसन्द श्राती इस लिए सत्य का ग्रहण करना चाहिए ॥ १६ ॥ लिखना-पढ़ना न जान कर व्यापार करने ले थोड़े दिन चलता है; जहां कोई हिसाबी मिल गया कि, बंस तुरन्त ही झुठाई खुल जाती है ॥ १७ ॥ प्रमाण और साक्षी सहित सब हिसाव साफ रखना चाहिए, इतने पर हिसावी कुछ नहीं कर सकता ॥ १८ ॥ जो स्वयं ही फंस जाता है वह अन्य लोगों को कैसे समझा सकता है ? कोई भी हो, अज्ञानता से संकट में पड़ता ही है ॥१६॥ बल नहीं है और में गया है। फिर उसको हार होगी ही इसमें दोष किसका है, ॥ २० ॥ जो सच वात अनुभव में आजाय उसको आदरपूर्वक ग्रहण करना चाहिए। बिना अनुभव की बात भूसा की तरह जानना चाहिए ॥२१॥ सिखाने से क्रोध आता परन्तु पीछे से पश्चाताप होता है, क्योंकि, मिथ्या निश्चय तत्काल उड़ जाता है ॥ २२ ॥ सत्य छोड़ कर मिथ्या ग्रहण करने से हानि होती है । परमात्मा के न्याय के अनुसार चलना चाहिए ।। २३ ॥ न्याय छोड़ने से सारा संसार निन्दा करता है। किससे किससे झगड़ कर कष्ट सहा जाय ? ॥ २४ ॥ अन्याय से कभी किसीका भला नहीं हुआ। असत्य का अभिमान रखना पागलपन है ॥२५॥ असत्य पाप है और सत्य परमात्मा का स्वरूप है। अब सोचिये कि, इन दोनों में से कौन ग्राह्य है ॥ २६ ॥ सारा बोलना चालना माया में है; माया के बिना बोलना असम्भव है, अतएव निःशब्द को खोजना चाहिए ॥२७॥ वाच्यांश जान कर छोड़ देना चाहिए, लक्ष्यांश का विवरण करके उसे ग्रहण करना चाहिए। ऐसा करने से निःशब्द का पता लग जाता है ॥ २८ ॥ अष्टधा प्रकृति, जो पूर्वपक्ष है, उसको छोड़ कर अलक्ष में लक्ष लगाना चाहिए । यह बात वही जानता है जो मननशील परम दक्ष है ॥२६॥ नाना प्रकार का भूसट और करण (दाना एक ही बतलाना झूठ है । रस और वकला दोनों को एक समझ कर कौन चतुर बकले का सेवन करेगा? ॥ ३०॥ पिंड में नित्य-अनित्य- विवेक और ब्रह्मांड में अनेक प्रकार से सारासार का विचार करके- संव हूँढ़ कर-सिर्फ सार ग्रहण करना चाहिए ॥ ३१ ॥ अन्वय और व्यतिरेक आदि सब माया के कारण से हैं; यदि माया न हो तो विवेक