पृष्ठ:दासबोध.pdf/५५८

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दासबोध । [ दशक २० परब्रह्म के लिए लगता है ॥ १७ ॥ ब्रह्म का अंश आकाश है और आत्मा का अंश मन है; दोनों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए ॥ १८ ॥ अब, आकाश और मन दोनों समान कैसे हो सकते हैं? मननशील महापुरुष सब जानते है ॥ १६ ॥ मन यदि आगे मँडराया करता है तो पीछे कुछ भी नहीं रहता-फिर उसकी समता पूर्ण आकाश के सान्य कैसे की जा सकती है? ॥ २० ॥ परब्रह्म को भी अचल कहते हैं और इधर पर्वत को भी अचल ही कहते है; पर दोनों को एक कैसे कह सकते हैं? ॥ २१ ॥ ज्ञान, अज्ञान और विपरीत ज्ञान, तीनों एक समान कैसे हो सकते हैं ? इसका अनुभव, नन करके, प्राप्त करना चाहिये ॥ २२ ॥ ज्ञान कहते हैं जानने को, अज्ञान कहते हैं न जानने को और विपरीत ज्ञान कहते है कुछ के कुछ जानने को ॥ २३ ॥ जानने और न जानने को अलग करने से स्थूल पंचसौतिक रह जाता है, इसीको विपरीत शान जानना चाहिए * ॥ २४ ॥ दृष्टा, साक्षी, और अन्तरात्मा ही जीवात्मा है। जीवात्मा हो शिवात्मा है। फिर शिवात्मा ही जीवात्मा (होकर) जन्म लेता है ॥ २५ ॥ श्रात्मत्व में जन्म-मरण लगता है, आत्मत्व में जन्म-मरण भंग नहीं होता। "सम्भवामि युगे युगे"-ऐसा वचन है ॥ २६ ॥ एकदेशीय जीव, विचार से, विश्वम्भर हो जाता है। परन्तु विश्वम्भर से संसार छूट ही कैसे सकता है ? ॥ २७ ॥ वृत्तिरूप से ज्ञान और अज्ञान दोनों समान है। निवृत्तिरूप से विज्ञान होना चाहिए ॥ २८ ॥ ज्ञान ने इतना ब्रह्मांड बनाया है, उसीने इसे बढ़ाया भी है। वह नाना प्रकार के विकारों का समूह है ॥ २६ ॥ ब्रह्मांड का पाठवाँ देह, अर्थात् मूलमाया, वास्तव में ज्ञान ही है; उससे भी परे जो विज्ञानरूप विदेहावस्था है उसे प्राप्त करना चाहिए ॥ ३० ॥ दूसरा समास-त्रिविधा सृष्टि । ॥ श्रीराम ॥ चंचल' मूलमाया यदि न हो तो निर्गुण ब्रह्म उसी तरह निश्चल है जैसे गगन या अंतराल चारो ओर निश्चल है ॥ १॥ दृश्य पाता है और

  • यह पंचभौतिक पसारा विपरीत ज्ञान. है-यह न तो ज्ञान है और न अज्ञान है-यह

केषल. श्रम.अर्थात् विपरीत ज्ञान है। .