पृष्ठ:दासबोध.pdf/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६ दासबोध । [ दशक १ खरूप की शोभा है, जो परब्रह्म-सूर्य की प्रभा है और जो शब्दरूप से, बना बनाया दृश्य-संसार नाश कर सकती है ॥६॥ जो मोक्षश्रिया, अर्थात् मोक्षलक्ष्मी, और महामंगला है, जो सत्रहवीं जीवनकला, (अर्थात् ब्रह्मरंध्र से गिरती हुई अमृत की धार, जिसे पान करके योगी जन हजारों वर्ष अमर रहते हैं।) है, जो सत्त्वलीला, सुशीतला है तथा जो सुन्दरता की । खान है ॥१०॥ जो अव्यक्त पुरुप (परब्रह्म ) की व्यक्षता है । जो विस्तार से बढ़ी हुई (परब्रह्म की) इच्छाशक्ति है, जो कलिकाल की नियन्ता, अर्थात् नियमन करनेवाली, और सद्गुरु की कृपा है ॥ ११ ॥ जो परमार्थ- मार्ग का विचार है, जो सारासार का निश्चय बतला देती है और जो शब्द- बल से भवसिंधु का पारावार लगा देती है ॥ १२ ॥ इस प्रकार अकेली माया शारदा ने बहुत बेप बनाये हैं। वह स्वयं सिद्ध होकर अंतःकरण में, चतुर्विधा प्रकार से, अर्थात् परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी, इन चार रूपों करके प्रकट होती है ॥१३॥ तीनों वाचाओं के द्वारा जो कुछ अंतःकरण में आता है उसे वैखरी, अर्थात् चौथी वाचा, प्रकट करती है। इस लिए कर्तृत्त्व जो कुछ हुआ वह शारदाही के कारण से हुआ ॥ १४ ॥ जो ब्रह्मादिकों की जननी है, विष्णु और महादेव जिससे हुए हैं, सृष्टि की रचना और तीनों लोक जिसका विस्तार है ॥ १५॥ जो परमार्थ का सूल किंवा केवल सद्विद्याही है, जो शांत, निर्मल और निश्चल खरूप- स्थिति है ॥ १६ ॥ जो योगियों के ध्यान में, जो साधकों के चिंतन में और जो सिद्धों के अन्तःकरण में समाधिरूप से वास करती है ॥ १७ ॥ जो निर्गुण की पहचान है, जो अनुभव की निशानी है और जो घट घट में व्यापक है॥ १८॥शास्त्र, पुराण, वेद और श्रुति जिसकी अखंड स्तुति करते रहते हैं और प्राणिमात्र जिसका नाना रूपों में यश गाते रहते हैं ॥१६॥ जो वेदशास्त्रों की महिमा है, जो निरुपसा की उपमा है और जिसके योग से परमात्मा कहा जाता है ॥२०॥ जो नाना प्रकार की विद्या, कला, सिद्धि, निश्चयात्मक बुद्धि और सूक्ष्म वस्तु का शुद्ध ज्ञान- स्वरूप है ॥ २१ ॥ जो हरिभक्तों की भक्ति है, जो अन्तर्निष्टों की अन्तर्दशा है और जो जीवन्मुक्तों की सायुज्यसुक्षित है ॥ २२ ॥ जो अनन्त वैष्णवी माया है, जिसकी नाटक-मोहकता किसीको मालूम नहीं होती, जो बड़ों बड़ों को ज्ञान के अभिमान से फंसाती है ॥ २३ ॥ जो जो दृष्टि से देखा जाता है, शब्द से पहचाना जाता है और मन को जिसका भास होता है उतना सब उसीका रूप है ॥२४॥ स्तवन, भजन, भक्ति और भाव, इनसे किसी भी, माया के बिना ठौर नहीं है, इस वचन का.अभि- परमात्मा " "