पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१०२

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क़ासिद के आते आते, ख़त इक और लिख रखूँँ
मैं जानता हूँ, जो वह लिखेंगे जवाब में

मुझ तक कब, उनकी बज़्म में, आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

जो मुन्किर-ए-वफ़ा हो, फ़रेब उस प क्या चले
क्यों बदगुमाँ हूँ दोस्त से, दुश्मन के बाब में

मैं मुज़्तरिब हूँ वस्ल में, ख़ौफ़-ए-रक़ीब से
डाला है तुमको वह्म ने, किस पेच-ओ-ताब में

मैं और हज़्ज़-ए-वस्ल, ख़ुदासाज़ बात है
जाँ नज्ऱ देनी भूल गया, इज्त़िराब में

है तेवरी चढ़ी हुई, अन्दर निक़ाब के
है इक शिकन पड़ी हुई, तर्फ़-ए-निक़ाब में

लाखों लगाव, एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव, एक बिगड़ना ‘अिताब में

वह नालः, दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब में

वह सेह्र, मुद्द‘आ तलबी में न काम आये
जिस सेह्र से सफ़ीनः रवाँ हो सराब में