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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१०३

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ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी, कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब-ओ-शब-ए-माहताब में

९९


कल के लिये कर आज न ख़िस्सत शराब में
यह सू-ए-ज़न है साक़ि-ए-कौसर के बाब में

हैं आज क्यों ज़लील, कि कल तक न थी पसन्द
गुस्ताख़ि-ए-फ़रिश्तः हमारी जनाब में

जाँ क्यों निकलने लगती है तन से, दम-ए-समा'अ
गर वह सदा समाई है चँग-ओ-रबाब में

रौ में है रख़्श-ए-'अम्र, कहाँ, देखिये, थमे
ने हाथ बाग पर है, न पा है रिकाब में

उतना ही मुझको अपनी हक़ीक़त से बो'द है
जितना कि वह्म-ए-गैर से हूँ पेच-ओ-ताब में

अस्ल-ए-शुहूद-ओ-शाहिद-ओ-मशहूद एक है
हैराँ हूँ, फिर मुशाहिदः है किस हिसाब में

है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वुजूद-ए-बह
याँ क्या धरा है क़तरः-ओ-मौज-ओ-हबाब में