पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११२

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करते हो मुझको मन'-ए-क़दम बोस किस लिये
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं

ग़ालिब, वजीफः ख़्वार हो, दो शाह को दु'श्रा
वह दिन गये कि कहते थे, नौकर नहीं हूँ मैं

११२

सब कहाँ, कुछ लालः-ओ-गुल में नुमायाँ हो गई
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी, कि पिन्हाँ हो गई

याद थीं, हम को भी, रँगारँग बज़्म आराइयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ हो गई

थीं बनातुन्ना'श-ए-गर्दू, दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उनके जी में क्या आई, कि 'अरियाँ हो गई

कैद में या'क़ूब ने ली, गो, न यूसुफ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िन्दा हो गई

सब रक़ीबों से हो नाखुश, पर जनान-ए-मिस्र से
है जुलैखा ख़ुश, कि मह्व-ए-माह-ए-कन्'आँ हो गई

जू-ए-खूँ आँखों से बहने दो, कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं यह समझूँगा, कि शम'एँ दो फुरोजाँ हो गई