पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११८

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हुस्न और उस प हुस्न-ए-जन, रह गई बुल्हवस की शर्म अपने प ए'तिमाद है, गैर को ग्राजमाये क्यों वाँ वह गुरूर-ए-'अिज़-ओ-नाज, याँ यह हिजाब-ए-पास-ए-वज्य राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वह बुलाये क्यों हाँ वह नहीं ख़ुदा परस्त, जाओ वह बेवफ़ा सही जिसको हो दीन-ो-दिल अजीज, उसकी गली में जाये क्यों ग़ालिब-ए-ख़स्तः के बिगैर, कौन से काम बन्द हैं रोइये जार जार क्या, . कीजिये हाय हाय क्यों ११७ गुंचः-ए-नाशिगुफ़्तः को दूर से मत दिखा, कि यों बोसे को पूछता हूँ मैं, मुँह से मुझे बता, कि यों पुरसिश-ए-तर्ज-ए-दिलबरी, कीजिये क्या, कि बिन कहे उसके हर इक इशारे से निकले है यह अदा, कि यों रात के वक्त मै पिये, साथ रक़ीब को लिये आये वह याँ ख़ुदा करे, पर न करे ख़ुदा, कि यों रौर से रात क्या बनी, यह जो कहा, तो देखिये सामने आन बैठना, और यह देखना कि यों