पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२७

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गालिब भी गर न हो, तो कुछ ऐसा जरर नहीं दुनिया हो, यारब, और मिरा बादशाह हो १२६ गई वह बात, कि हो गुफ़्तुगू तो क्योंकर हो कहे से कुछ न हुआ, फिर कहो , तो क्योंकर हो हमारे जेहन में, इस फ़िक्र का है नाम है विसाल कि गर न हो, तो कहाँ जायें, हो, तो क्योंकर हो अदब है और यही कशमकश, तो क्या कीजे हया है और यही गोमगो, तो क्योंकर हो तुम्हीं कहो, कि गुजारा सनम परस्तों का बुतों की हो अगर ऐसी ही खू, तो क्योंकर हो उलझते हो तुम, अगर देखते हो आईन : जो तुमसे शहर में हों एक दो, तो क्योंकर हो जिसे नसीब हो, रोज-ए-सियाह मेरा सा वह शख़्स दिन न कहे रात को, तो क्योंकर हो हमें फिर उनसे उमीद, और उन्हें हमारी क़द्र हमारी बात ही पूछे न वो, तो क्योंकर हो