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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२८

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ग़लत न था, हमें खत पर, गुमाँ तसल्ली का
न माने दीदः-ए-दीदार जू, तो क्योंकर हो

बताओ उस मिशः को देखकर, हो मुझको करार
यह नेश हो रग-ए-जाँ में फरो, तो क्योंकर हो

मुझे जुनूँ नहीं, ग़ालिब, वले बक़ौल-ए-हुज़ूर
फिराक़-ए-यार में तस्कीन हो, तो क्योंकर हो

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किसी को देके दिल कोई नवा सँज-ए-फ़ुग़ाँ क्यों हो
न हो जब दिल ही सीने में, तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यों हो

वह अपनी ख़ू न छोड़ेंगे, हम अपनी वज़्'अ क्यों छोड़ें
सुबुक सर बन के क्या पूछें, कि हमसे सरगिराँ क्यों हो

किया ग़मख़्वार ने रुस्वा; लगे आग इस महब्बत को
न लावे ताब जो ग़म की, वह मेरा राज़दाँ क्यों हो

वफ़ा कैसी, कहाँ का 'अश्क, जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर, अय सँग दिल, तेरा ही सँग-ए-आस्ताँ क्यों हो

क़फ़स में, मुझसे रूदाद ए-चमन कहते, न डर, हमदम
गिरी है जिस प कल बिजली, वह मेरा आशियाँ क्यों हो