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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१३१

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दीवार, बार-ए-मिन्नत-ए-मज़दूर से, है ख़म
अय ख़ान्माँ ख़राब, न एहसाँ उठाइये

या मेरे ज़ख़्म-ए-रश्क को रुस्वा न कीजिये
या पर्दः-ए-तबस्सुम-ए-पिन्हाँ उठाइये

१३२


मस्जिद के ज़ेर-ए-सायः, ख़राबात चाहिये
भौं पास आँख, क़िबल:-ए-हाजात चाहिये

'आशिक़ हुये हैं आप भी, इक और शख़्स पर
आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिये

दे दाद, अय फ़लक, दिल-ए-हसरत परस्त की
हाँ कुछ न कुछ तलाफ़ि-ए-माफ़ात चाहिये

सीखे हैं महरुख़ों के लिये हम मुसव्विरी
तक़रीब कुछ तो बह्र-ए-मुलाक़ात चाहिये

मै से ग़रज़ नशात है किस रूसियाह को
इक गूनः बेख़ुदी मुझे दिन रात चाहिये

है रँग-ए-लाल:-ओ-गुल-ओ-नसरीं, जुदा जुदा
हर रँग में बहार का इस्बात चाहिये