यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मैं-ए-'अश्रत की ख़्वाहिश, साक़ि-ए-गर्दू से क्या कीजे
लिये बैठा है, इक दो चार जाम-ए-वाश़गूँ वह भी
मिरे दिल में है,ग़ालिब,शौक़-ए-वस्ल-ओ-शिकव-ए-हिजराँ
ख़ुदा वह दिन करे, जो उससे मैं यह भी कहूँ, वह भी
१३४
है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दः लबों से
तँग आये हैं हम, ऐसे ख़ुशामद तलबों से
है दौर-ए-क़दह, वज्ह-ए-परीशानि-ए-सह्बा
यक बार लगा दो ख़ुम-ए-मै मेरे लबों से
रिन्दान-ए-दर-ए-मैकदः, गुस्ताख़ हैं, ज़ाहिद
ज़िन्हार न होना तरफ़, इन बेअदबों से
बेदाद-ए-वफ़ा देख, कि जाती रही आख़िर
हरचन्द मिरी जान को था रब्त लबों से
१३५
ता, हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
सुन लेते हैं, गो ज़िक्र हमारा नहीं करते