पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

इस विधान के आगे बाक़ी सारे विधान जीर्ण हो चुके है। जब मोतियो का रखजाना सामने हो तो पुराने खलियानो से दाने चुनने की क्या आवश्यकता है। यह कहने के बाद गालिब ने जो निष्कर्ष निकाला है वह महत्वपूर्ण है। आईन-ए-अकबरी के अच्छा होने में क्या संदेह है, लेकिन उदार सृष्टि को कृपण नहीं समझना चाहिए क्योकि गुणो का कोई अन्त नही है। खूब से खूब- तर का क्रम जारी रहता है। इसलिए मृतकोपासना शुभ कार्य नही है (फारसी मसनवी नं १०)। इसके बाद कोई संदेह नही रह जाता कि गालिब के पास समाज-विकास का एक उत्तम आदर्श था और वह अकबर-कालीन विधान की तुलना में नये औद्योगिक विधान को प्रधानता देता था और विज्ञान के आविष्कारो और विचारों को शाअिरी मे स्थान देने के पक्ष में था ( खुतूत-मेहर ५४८)। गालिब के लिए यह अनुमान लगाना कठिन था कि इस नयी व्यवस्था के सामाजिक सबंध क्या है और इसकी प्रकृति में किस प्रकार की विनाशकता है। लेकिन इसका एक शेर ऐसा अवश्य है जो एक क्षण के लिए चौंका देता है- शारतगर-ए-नामूस न हो गर हवस-ए-जर क्यों शाहिद-ए-गुल बाग से बाजार में आवे (१७४-८) ग़जल गीतिमय ( गिनाई, LYRICAL) और आतरिक ( SUBJECTIVE ) काव्य की पराकाष्ठा है। इसलिए इसके शेरो में व्याक्तिगत मनोभाव और सामाजिक व्याकुलता के मध्य सीमा निर्धारित करना कठिन है, फिर भी यह अनुभव कर लेना कठिन नहीं कि गालिब अपने युग से अत्यंत निराश था। इस निराशा में निजी असमर्थताओं ( नारसाइयों) और समाजी विवशताओ ने मिलकर एक कैफियत पैदा करदी थी। गालिब को जिन्दगी जिस तरह भुगतनी पड़ी वह एक भावुक हृदय का खून करदेने के लिए काफी है। पाँच वर्ष की आयु में बाप का और आठ-नौ वर्ष की आयु में चचा का साया सर से उठ गया। एक संपन्न ननिहाल में माँ के बेरंग ऑचल के नीचे बचपन व्यतीत किया और आरंभिक युवावस्था की चंदरोजा फुरसत -ए- गुनाह के बदले उम्र भर की असफलता, विफलता, उत्ताप और जलन मिली। अठारह-उन्नीस वर्ष की आयु से जीवन की निर्मताओं का सामना कर ने के लिए अकेले मैदान में उतरना पड़ा। आय का कोई साधन नहीं था। बाप और चचा की मृत्यु के बाद जो जागीर पालन-पोषण के लिए थी उसका अधिकाश लोग खा गये और गालिब उम्र भर हाथो में अर्जियों और कसीदे लिये हुए देहली, लखनऊ, कलकत्ता, कानपुर, दर-बदर ठोकरे खाता फिरा, अयोग्य धनवानों और अंग्रेज अफ़सरो की झूठी प्रशंसा में हृदय-क्त उगला और उसके बाद भी कर्ज की शराब पी और भीख पर जिन्दगी गुजारी। मरते समय [ दिल्ली, १५ फरवरी १८६६] भी यह कटु अनुभूति