साथ थी कि विधवा पत्नी पर गरीबी और निर्धनता में क्या बीतेगी। यह भी हुआ कि अणदाताओं की नालिश और डिग्रियो के डरसे घर में छिपकर बैठना पड़ा और किसी शत्रु के षड़यंत्र से जुए (शतरंज और चौसर) की लत में दरखाने का अपमान सहन करना पड़ा। मुग़ल दरबार में, जिसकी बहार लुट चुकी थी, वह आदर-पद भी न मिला जो निम्नतर कोटि के कयिवो को प्राप्त हो रहा था और आयु के अन्तिम चरण में एक बौद्धिक वाद-विवाद के अपराध में बरसों माँ-बहन की गालियाँ खानी पड़ी। युवावस्था में युवती प्रेयसी का जनाजा आँग्वों के सामने उठ गया जिसकी अदाएँ उम्रभर तड़पाती रही। घर में बच्चों के खेल-कूद के बजाय उनकी लाशें नजर आयी। जिस भाजे को गोद लिया था वह जवान मर गया, दिल्ली आँखो के सामने उजड़ी, बंधु-बाधव ऑग्वों के सामने क़त्ल हुए, समकालीन कवि और विद्वान फॉसियो पर चढ़ा दिये गये और काले पानी भेज दिये गये और गालिब के लिए “ मातम-ए- यक शहर-ए-आरज" (कामना नगरी का शोक) (१७-२) के अतिरिक्त कुछ बाक़ी नहीं रह गया। इन हालात में वह यही कहने पर विवश था- .. न गुल-ए-नगम: हूँ न पर्दः-ए-साज __ मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज [७२] गालिब को यह दुख था कि "कलंदरि-ओ-आजादगि-ओ-ईसार-ओ- करम' (स्वतंत्रता, त्याग और उदारता) के जो जौहर उसको मिले थे वह प्रकट न होसके । “अगर तमाम 'आलम में न होसके न सही, जिस शहर में रहूँ उस शहर में तो भूखा-नंगा नजर न आये। खुदा का मकहूर (कोप-भाजन) खल्क का मरदूद (बहिष्कृत) बूढ़ा, नातवान (दुर्बल), बीमार, फकीर, नकबत (दरिद्रता) में गिरफ्तार मेरे और मुआमिलात-ए-कलाम-ओ-कमाल (कविता और गुण) से कत्-ए-नजर करो (अनदेखा करो)। वह जो किसी को भीख माँगते न देख सके और खुद दर-बदर भीख माँगे वह मैं हूँ" (एक खत)। इस खत के पीछे गालिब का मानव के संबंध में विचार काम कर रहा है जिसको उसने अपने एक फ़ारसी कसीदे (२६) में भी प्रस्तुत किया है। एक और जगह कहता है कि खुदा ने सिर्फ ईमान की ज्योति जगाई है। सभ्यता और शहरों का श्रृंगार तो मनुष्य से है (जमीम: ३४)। जब उस मनुष्य का अपमान गालिब से सहन न होसका तो कभी तो खुदा से फ़रियाद की कि आज हम इतने पतित क्यों हैं (६६-६) और कभी यह कह कर दिलको दिलासा दे लिया- आराइश-ए-जमाना जि बेदाद करदः अन्द हर लूँ कि रेख्त गाज:-ए-रू-ए-जमीं शनास (जमाने का श्रृंगार अत्याचार से किया गया है और जो भी रक्त प्रवाहित